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अतीत की झलक
भागवतकार ने भगवान् ऋषभदेव का विस्तृत वर्णन किया है और उनके उपदेशो का गगह भी किया है । उन्होने अपभदेव द्वारा उपदिष्ट धर्म को परमहंल-धर्म और भगवान् को अहंन्त बतलाया है ।
वे कहते है-"नाभि राजा ने संसार मे धर्म-वृद्धि के लिए मोक्ष-प्राप्ति और अपवर्ग को पथप्रदर्शन के लिए अपत्यकामना की, और अरिहन्त भगवान् को अवतरित करने के लिए यन किया ।"
बाहाणो और ऋपियो ने राजा की कामना जानकर उत्तर दिया-"महाराज! यदि आप अर्हन चाहते हो तो अवश्य आपकी कामना पूर्ण होगी।" फिर ब्राह्मणो ने परमात्मा से प्रार्थना की, परमात्मा ने ब्राह्मणों की प्रार्थना स्वीकार की और अर्हन् भगवान् को भेजा। ____ "ग्रहन नाम-रूप प्रकृति के गुणो से निर्लेप, अनासक्त तथा मोह से असंस्पृष्ट होते है और मोक्ष तथा अपवर्ग का मार्ग बतलाते है।" ___"ऋपभदेव आत्मस्वभावी थे। अनर्थपरम्परा (हिंसा आदि पाप) के पूर्ण त्यागी थे। वे केवल अपने ही आनन्द में लीन रहते तथा अपने ही स्वरूप में विचरण करते।"
"ऋपभदेव साक्षात् ईश्वर थे। वे सर्व समता रखते, सर्व प्राणियो से मित्रभाव रखते और सर्व प्रकार दया करते थे।"
श्रीमद्भागवत ने उच्च स्वर से उद्घोषित किया है कि उस ऋषभदेव भगवान् का ज्येष्ठ और श्रेष्ठी गुणी भरत नामक पुत्र था । वह भारत का प्रादि सम्राट था और उसी के नाम से इस राष्ट्र का नाम "भारतवर्ष" पड़ा है।
भरत को सम्पूर्ण राज्य मिल गया, किन्तु ६८ पुत्री को कुछ भी नहीं मिला। वे उद्विग्न होकर परमयोगी ऋषभदेव के पास गए और उनके सामन राज्यचिन्ता का शोक प्रकट किया। भगवान् ऋषभदेव ने उन ६८ पुत्रो की राज्य के प्रति आसक्ति देखकर वहुत ही गम्भीर, मर्मस्पर्शी और कल्याणकारी उपदेश दिया।
उसका मूल के अनुसार सार यह है :---
१. हे पुत्रो! मानवीय संतानो ! संसार में शरीर ही कष्टों का घर है। यह भोगने योग्य नही है। इसे माध्यम बनाकर दिव्य तप करो जिससे अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। तप से अन्त करण-शुद्धि और अन्त करण-शुद्धि से ब्रह्मानन्द प्राप्त होता है।