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जैन धर्म
कहते है। काट और हेगेल आकाश को मानसिक व्यापार अथवा कल्पना मानते थे, किन्तु आइन्स्टीन ने सिद्ध किया है कि आकाश एक सत् पदार्थ है)।
आकाग के जितने भाग मे धर्म और अधर्म द्रव्य व्याप्त है, वह भाग लोकाकाग या लोक कहलाता है। जो भाग उनमे शून्य है, वह अलोकाकाग है । धर्म-अधर्म द्रव्यो से गून्य होने के कारण अलोकाकाश में जीव और पुद्गल का गमन या अवस्थान भी नही होता । अतएव अलोकाकाग, मूना प्राकारा ही आकाय है । आकाश का लोक-खण्ड परिमित है, और अलोकखण्ड सभी ओर अपरिमित और असीम है।
काल द्रव्य --१ कहा जा चुका है कि सभी द्रव्य मूल स्वभाव से नित्य होने पर भी परिणमनशील है । यद्यपि अपने-अपने परिणमन में सव द्रव्य आप ही उपादान है, तथापि निमित्त कारण के अभाव में कार्य नहीं होता। अतएव द्रव्यो के परिणाम मे भी कोई निमित्त चाहिए। वही निमित्त काल द्रव्य है ।
समस्त विश्व, काल की सत्ता के बल पर ही क्षण-क्षण में परिवर्तित हो रहा है । वस्तुए देखते-देखते नवीन से पुरातन और जीर्ण-शीर्ण हो जाती है। यह काल का ही प्रभाव है । (फ्रास के प्रसिद्ध वैज्ञानिक वर्गसन ने सिद्ध किया है कि काल एक Dynamic reality है। काल के प्रबल अस्तित्त्व को स्वीकार करना अनिवार्य है)। काल की सत्ता के अभाव मे हम किसी को ज्येष्ठ और किसी को कनिष्ठ किस आधार पर कह सकते है ?
पुद्गल द्रव्य -३ दृश्यात्मक अखिल जगत् पुद्गलमय है । ग्राम, नगर, भवन, वस्त्र, भोजन, विविध प्रकार के प्राणी वर्ग के शरीर आदि-आदि जो भी हमारी दृष्टि मे आते है, सभी पुद्गल है । यद्यपि यह कहा नही जा सकता कि जो पुद्गल है, वह सब हमे दृष्टिगोचर होता है, परन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि जो दृष्टिगोचर है, वह पुद्गल ही है।
चय-अपचय होना और बनना-विगड़ना-सव पुद्गल के ही रूप हैं । षट्द्रव्यो में एक मात्र पुद्गल ही मर्न अर्थात् वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त है ।
१. अनुयोगद्दार, द्रव्यगुणपर्यायनाम, सू० १२४, भगनती सू०, श० २५,
उद्देशा ५, तू• ७४७ ॥ २. उत्तराध्ययन, अ० २८, गाथा १०।। ३. भगवती मू० १० १३ उद्देशा ४ सू• ४८१ ।