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सम्यग्ज्ञान
६. अजीवद्रव्य .--जीवद्रव्य के दिग्दर्शन के पश्चात् अजीवद्रव्य की ओर ध्यान दे । जिसमे जीव के गुण चेतना आदि नहीं है, फिर भी जो उत्पाद, व्यय
और प्रौव्य लक्षण से सम्पन्न है और जिस मे गुणो और पर्यायो की विद्यमानता है, वह अजीव द्रव्य पाच प्रकार का है-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल ।
धर्मद्रव्य -- यहा धर्म शब्द केवल जैन परम्परा मे ही प्रचलित एक पारिभाषिक शब्द है। वह अमूर्त, अक्रिय, अखण्ड और लोकव्यापी द्रव्य है, फिर भी उसमें निरन्तर परिणमन होता रहता है। गतिक्रिया मे परिणत जीव और पुद्गल की गति मे सहायक होता है, जैसे पानी, मछली की गति मे, अथवा लोहे की पटरी, रेल की गति मे सहायक होती है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की गति में सहायक है । पानी मछली को, और पटरी रेल को चलने के लिए प्रेरित नही करते, फिर भी पानी के बिना मछली, और पटरी के अभाव में रेल चल नहीं सकती, इसी प्रकार धर्म द्रव्य किसी को गमन करने के लिए वाधित नही करता, फिर भी उसके अभाव में गति सभव नही है ।
अधर्मद्रव्य :-३ यह द्रव्य धर्म द्रव्य के समान ही है, परन्तु इसका काम जीव और पदगल की स्थिति में सहायक होना है। जैसे ताप के झुलसे हुए मनुष्य में, छाया देख कर विश्राम करने की रुचि स्वयमेव जागृत हो जाती है, अतएव छाया उसकी विश्रान्ति का निमित्त है, उसी प्रकार स्थिति परिणत जीव और पुद्गल की स्थिति मे अधर्मद्रव्य सहायक है।
यद्यपि गति और स्थिति मे जीव और पुद्गल स्वतत्र है, किन्तु इनकी सहायता के बिना गति और स्थिति सभव नही है।
___ आकाशद्रव्य --५ सब द्रव्यो को स्थान देने वाला द्रव्य आकाश है। यह समस्त वस्तुओ का आधार है और आप ही अपने सहारे टिका है । उसका अाधार कोई अन्य द्रव्य नही है। यह भी अमूर्त, अक्रिय और अखण्ड है। सर्वव्यापी है। नित्य होने पर भी परिणमनशील है। (वैज्ञानिक आकाश को 'स्पेस'
१. वैज्ञानिक इसे Principle of rest कहते है। २ आवश्यक सूत्र। ३. व्याख्या प्रज्ञप्ति श० १३, उद्देशा ४, सू० ४८१ । ४. व्याख्याप्रज्ञप्ति श० १३, उद्देशा ४, सू० ४८१