________________
चारित्र और नीतिशास्त्र
२०७
श्रुति और तपस्या आदि के मद का त्याग करना आवश्यक है। अपने आपको ऊची जाति और उच्च कुल का समझ कर दूसरो के प्रति हीनता का भाव रखता इसी प्रकार धन, वैभव आदि के घमण्ड मे आकर किसी को तुच्छ समझना मद है। साधु सब प्रकार के मदो का त्याग करके मार्दव धर्म की आराधना करते है ।
३ आर्जव-ऋजुता अथवा सरलता को आर्जव कहते है। विचार, वाणी और व्यवहार की एकरूपता होने पर इस धर्म की साधना होती है। इस की साधना के लिए कुटिलता का त्याग करना अनिवार्य है।
आर्जव धर्म समाज में पारस्परिक विश्वास के लिए जितना आवश्यक है उतना ही बुद्धि की निर्मलता के लिए भी आर्जव से निर्मल बनी हुई बुद्धि वस्तु के सत्य स्वरूप को ग्रहण करने में समर्थ होती है। कुटिलता के त्यागी पुरुप को किसी प्रकार का छल कपट प्रपच नहीं करना पडता । उसका चित्त शान्त, कलुषताहीन और सरल रहता है ।
४ शौच-लोभ का त्याग करना शौच धर्म है। साधक के जीवन में रहा हुआ तुच्छ पदार्थ का लोभभी अनर्थकारक होता है, लोभ से सभी सद्गुण नप्ट हो जाते है । अतएव साधक को शिष्य लोभ, कीतिलोभ, और प्रतिष्ठा लोभ से भी दूर रहना होता है । धन-सम्पत्ति आदि भौतिक पदाथो का लोभ तो उसे स्पर्श कर ही नही सकता।
५. सत्य--पाच अणुव्रतो एव महाव्रतो के विवेचन मे सत्य उल्लेख किया जा चुका है। मूल व्रतो मे सत्य की गणना करके भी पुनः दश धर्मों में उसे स्थान देना , सत्य के विशिष्ट महत्व का बोधक है। जैन शास्त्रो मे बडे ही मार्मिक और प्रभावशाली शब्दो मे सत्य की महिमा बखानी गई है। प्रश्न व्याकरण शास्त्र में कहा है
"जं सच्चं तं खु भगवं ।" "अर्थात् सत्य ही भगवान् है ।"
इसके पश्चात् सत्य का महत्व दिखलाते हुए कहा है--सत्य ही लोक मे सारभूत वस्तु है । वह महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर है, मेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है । चन्द्र मण्डल से भी अधिक सौम्य है । सूर्य मण्डल से मी अधिक तेजस्वी है । शरत्कालीन आकाश से भी अधिक निर्मल है और गन्धमादन पर्वत से भी अधिक सौरभवान है।
६. संयम--मनोवृत्तियो पर, हृदय में उत्पन्न होने वाली कामनाओं पर इन्द्रियो पर, अकुश रखना सयम है।