SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६ जैन धर्म दूसरे स्मारक खडे करना, यह सब अमर बनने की प्रान्तरिक प्रेरणा का ही । फल है । मगर खेद है कि कोई भी भौतिक पदार्थ मनुष्य की इस अभिलाषा को तृप्त नही कर सकता । भौतिक पदार्थ सव नाशगील है, और जो स्वयं नागगील है, वह दूसरे को अमर कैसे बना सकता है । हा, अमरत्व प्रदान करने की शक्ति है कर्म मे । जैनशास्त्र कहते है कि दगविध धर्म मनुष्य को अमर बनाता है । इसी कारण जैन साधुग्रो के लिए इनका पालन करना आवश्यक बतलाया गया है । उसका संक्षिप्त स्वरूप यह है १ क्षमा--क्षमा अहिसा धर्म का एक विभाग है। अपराधी को क्षमा देने और अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करने से जीवन दिव्य वन जाता है। जैनशास्त्र मे साधु के लिए दृढतापूर्वक क्षमा याचना करने का विधान है । शास्त्र कहता है साधुनो ! तुमसे किसी का अपराध हो गया हो तो सारे काम छोड से और सब से पहले क्षमा मागो । जव तक क्षमा न मांग लो; भोजन मत करो, गौच मत करो और स्वाध्याय मत करो। क्षमा याचना करने से पहले मुह का थूक गले न उतारो। तीर्थकरो के इस कठोर विधान का परिणाम यह है कि न केवल जम में ही वरन् श्रावक मे भी, क्षमायाचना की परम्परा अब तक अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है । वे प्रतिदिन, प्रति पखवाड़े, प्रति चौमासी और प्रतिवर्ष खले हृदय से अपने अपराधों के लिए क्षमायाचना करते है। जैनो का सबसे बडा धार्मिक पर्व, जो पर्दूपण के नाम से विख्यात है, क्षमा याचना का ही पर्व है। उस समय समस्त जैन मुनि और श्रावक सभी जीवो से अपने से ज्ञात-अज्ञात सभी अपराधो के लिए विनम्रभाव से क्षमा मांगते है । २. मार्दव--चित्त मे कोमलता और व्यवहार में नम्रता होना मार्दव धर्म है। मार्दव की साधना विनय से होती है । जैन धर्म मे विनय को इतना महत्व दिया जाता है कि जैन-धर्म विनयमूलक धर्म ही कहलाता है। शास्त्र कहते है-"धम्मस्स विणो मूल ।” अर्थात् धर्म की जड विनय है । मार्दव धर्म की सिद्धि के लिए जाति, कुल, धन, वैभव, सत्ता बल, बुद्धि १. हरिभद्र सूरि द्वारा उद्धृत, संग्रहणी गाथा, समवायांग १० समभाव स्थानांग सूत्र ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy