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चारित्र और नीतिशास्त्र
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३ कारुण्य - भावना - पीड़ित प्राणी को देखकर हृदय में अनुकम्पा होना पीड़ा का निवारण करने के लिए यथोचित प्रयत्न करना करुणा भावना है । करुणा भावना के अभाव मे अहिसा यादि व्रत सुरक्षित नही रह सकते । मन मे जब करुणा भावना सजीव हो उठती है तो मनुष्य अपने किसी व्यवहार अथवा विचार से किसी को कष्ट नही पहुचा सकता । यही नही, किसी दूसरे निमित्त से कप्ट पाने वाले की उपेक्षा भी वह नहीं कर सकता ।
४. मव्यस्यभावना -- जिनसे विचारो का मेल नही खाता अथवा जो सर्वथा संस्कारहीन है, किसी भी प्रकार की सवस्तु को ग्रहण करने के योग्य नही है, जो गलत राह पर चला जा रहा है और सुधारने तथा सही रास्ते पर लाने का प्रयत्न सफल नही हो रहा है, उसके प्रति उपेक्षाभाव रखना मध्यस्थ भावना है ।
मनुष्य मे प्राय असहिष्णुता का भाव देखा जाता है । वह अपने विरोधी या विरोध को सहन नही कर पाता । मतभेद के साथ मन-भेद होते देर नही लगती । किन्तु यह भी एक प्रकार की दुर्बलता है । इस दुर्बलता को दूर करने के लिए माध्यस्थभाव जगाना आवश्यक है । इस भावना से विरोधी विचार मनुष्य को क्षुब्ध नही करता और उसका समभाव सुरक्षित बना रहता है ।
यह चार भावनाए आनन्द का निर्मल निर्झर है । मनुष्य का जो ग्रान्तरिक सताप शीतल पवन, चन्दन - लेप या चन्द्रमा की अह्लादजनक किरणो से भी शान्त नही हो सकता, उसे शान्त करती है। इन भावनाओ से जीवन विराट् और समग्र वनता है । जिन प्राध्यात्मिक गुणो के विकास के लिए साधना का पथ अंगीकार किया जाता है उनके विकास में यह उपयोगी सिद्ध होती है ।
दशविध धर्म
यद्यपि जीव अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त न कर सकने के कारण जन्ममरण के चक्र मे पडा है, फिर भी स्वभाव से वह अमरत्व का स्वामी है । मरना उसका स्वभाव नही है । अपने इस स्वभाव के प्रति अव्यक्त आकर्षण होने से ही जीव को मरना अनिष्ट है । अन्यान्य जीवधारियों में तो विवेक का विकास नही है, मगर मनुष्य विकसित प्राणी है । उसके सामने भविष्य का चित्र रहता है । वह जानता है कि इस जीवन का अन्त अवश्यम्भावी है । अतएव वह जव शरीर से अमर रहना असम्भव समझता है, तो किसी दूसरे रूप मे श्रमर होने का प्रयत्न करता है । कोई कीर्ति को चिरस्थायी बना कर अमर रहना चाहता है, कोई सन्तान परम्परा के रूप मे अपने नाम पर विजयस्तम्भ बनाना, अथवा