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जैन धर्म
पाश्चात्य विचारधारा से प्रेरित कई भारतीय जन भी आज लालसानो की तृप्ति मे जीवन का उत्कर्ष समझ बैठे हैं । इच्छायो का दमन करना वे पौरुषहीनता का चिन्ह मानते हैं। मगर इस भ्रान्त गरणा का परिणाम हमारे सामने है । मानव जाति की आवश्यकताए दिनोदिन बढती जा रही है, और मनुष्य उनकी पूर्ति की मृगतृष्णा मे परेशान हो रहा है। निरंकुश कामनाओ की बदौलल ही समार नाना प्रकार के संघर्षो का अखाडा बन रहा है। कोई नही जानता कि मनुष्य की कामना किस केन्द्र पर जा थमेगी और कव मनुष्य की परेशानियों और संघों की इतिश्री होगी ? यह जानना सम्भव भी नहीं है । क्यो
"इच्छा हु आगास समा अणंतिया।" जैसे आकाश अनन्त है, उसी प्रकार इच्छाएं भी अनन्त हैं । एक इच्छा की पूर्ति होने से पहले ही अनेक नवीन इच्छानो का प्रादुर्भाव हो जाता है ।
स्पष्ट है कि मन और इन्द्रियो को सयत किए बिना और लालसाम्रो को काबू में किए विना, न व्यक्ति के जीवन मे तुष्टि पा सकती है, और न समाज, राष्ट्र या विश्व मे ही शान्ति स्थापित हो सकती है। अतएव जैसे प्राध्यात्मिक उन्नति के लिए सयम की आवश्यकता है, उसी प्रकार लौकिक समस्याओं को सुलझाने के लिए भी वह अनिवार्य है। भगवान महावीर हमारा पथ प्रदर्शन करते हुए कहते है
"कामे कमाही, कमियं खुदुक्खं ।" । अर्थात्-~-अगर तुमने कामनाओ को लांघ लिया, तो दुखो को भी । लांघ लिया ।
७. तप--जैनधर्म मे तप को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। तपस्या के द्वारा समस्त कार्य सिद्ध होते है, तप असाधारण मगल है । भगवान् महावीर ने अपने समय मे प्रचलित तपस्या के सकीर्ण रूप की विशालता प्रदान की है, उस समय मे धूनी तपना, काटो पर लेटना, गर्मी के दिनो मे धूप में खडा हो जाना, गीत मे जलागय मे प्रवेश करना आदि कायक्लेग ही प्रायः तप समझा जाता था। पर जैन-दृष्टि सकुचित और वहिर्मुखी नही है। उनके अनुसार आत्मा के गुणो का पोपण करने वाला तप ही वास्तविक तप है। इस कारण जैनशास्त्रो मे तप के दो विभाग कर दिए गए है-वाह्य और आभ्यन्तर । उपवास करना, कम खाना, अमुक रस अथवा अमुक वस्तु का त्याग कर देना आदि बाह्य तप है, और अपनी भूलो एव अपने अपराधो के लिए प्रायश्चित करना,