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कर्मवाद
१६७ ८ अन्तराय कर्म--यह अभीष्ट की प्राप्ति में अडगा लगा देने वाला कर्म है । यह पाँच प्रकार का है।' १ दानान्तराय
जिसके कारण दान देने की इच्छा होने
पर भी दान न दिया जा सके । २ लाभान्तराय
लाभ मे बाधा डालने वाला। ३ भोगान्तराय
भोग-प्राप्ति मे बाधक। ४ उपभोगान्तराय उपभोग (पुन पुन काम मे आने
वाली वस्त्रादि वस्तु) की प्राप्ति मे
बाधक। ५. वीर्यान्तराय - वीर्य-सामर्थ्य के विकास में वाधक ।
उन आठ कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म घातिक कहलाते हैं और शेप चार अघातिक है।
आठ कर्मों के इस दिग्दर्शन से पाठक समझ सकेगे कि कर्म का कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । जीव की सभी आन्तरिक वृत्तियाँ और साथ ही वाह्य आकृतियाँ कर्म का ही प्रताप है। जैन सिद्धान्त मे कर्मों का वर्णन इतना व्यवस्थित है कि उसमे कही क्षति या न्यूनता नजर नहीं आती ।
कर्म-व्यवस्था के अन्तर्गत उनकी विभिन्न दशाओ को भी समझ लेना आवश्यक है । वे मुख्य रूप से दश है ।२ १ वन्य
कमों का आत्मा के साथ बद्ध होना और उनमे पहले कही हुई चार बाते-स्वभाव, काल, मर्यादा, प्रभाव और परिमाण
उत्पन्न हो जाना। २. उत्कर्षण
बद्ध हुए कर्मो की कालमर्यादा और
फल-वृद्धि हो जाना। ३ अपकर्पण
काल-मर्यादा और फल मे न्यनता हो जाना।
१. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३३ तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ८-१३ । २. 'व्य-संग्रह टीका, गा० ३३ ।