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जैन धर्म
कभी-कभी ऐसा होता है कि प्राणी अशुभ कर्म का बन्ध करके शुभ विचार कार्य में प्रवृत्त हो जाता है । उसके बाद के इस विचार और व्यवहार का असर पहले के अशुभ कर्मों पर पड़ता है और वह यह कि उनकी लम्बी काल मर्यादा और विपाक शक्ति मे कमी हो जाती है। इसे अपकर्पण कहते है । कभी-कभी इससे विपरीत स्थिति में जीव कालमर्यादा और विपाक शक्ति मे वृद्धि भी कर लेता है वही उत्कर्षण कहलाता है ।
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४. सत्ता -- कर्म बन्वते ही अपना असर नही प्रकट करने लगते । जैसे मादक वस्तु का सेवन करते ही नशा नही आ जाता, धीरे-धीरे आता है, उसी प्रकार कर्मवन्ध के पश्चात् बीच का नियत समय, जिसे श्रवावाकाल कहते हैं, समाप्त होने पर ही कर्म का फल होता है । बन्ध होने के और फलोदय पर ही कर्म का फल होता है । बन्ध होने और फलोदय होने के वीज कर्म ग्रात्मा में विद्यमान रहते हैं । जैनशास्त्रो मे वह ग्रवस्था 'सत्ता' के नाम से प्रसिद्ध है ।
५. उदय-कर्म का फलदान उदय कहलाता है । अगर कर्म अपना फल देकर निर्जीर्ण हो तो वह फलोदय, और फल दिये विना ही नष्ट हो जाए तो वह प्रदेशोदय कहलाता है ।
६ उदीरणा -- महीना - बीस दिन मे वृक्ष पर पकने वाले फल को लोक कृत्रिम गर्मी पहुंचाकर एक ही दिन में पका लेते है, इसी प्रकार बन्ध के समय नियत हुई कालमर्यादा में कमी करके कर्म को जल्दी उदय मे ले ग्राना उदीरणा है ।
अपकर्षण के द्वारा स्थिति घट जाती है और नियत समय आने से पहले ही जब ग्रायु पूरी भोग ली जाती है, तो उसे लोक व्यवहार मे कालमृत्यु और शास्त्रीय परिभाषा में प्रयुकर्म की उदीरणा कहते हैं ।
७. संक्रमण --एक कर्म के अनेक अवान्तर भेद है । एक कम अपने नजानीय दूसरे भेट मे बदल सकता है। यह अदल-बदल मे सक्रमण कहलाता है ।
स्मरण रखना चाहिए कि मूल ग्राठ कर्मो से एक कर्म पलट कर दूसरा कर्म नहीं बन सकता । पर एक ही कर्म की अवान्तर प्रकृति पलट सकती है। हाँ, इनमें दो अपवाद है । प्रथम यह कि प्रायुकर्म के ग्रवान्तर भेदो का सक्रमण नही होता, मनुष्यायु अगर बन्ध चुकी है तो पलट कर वह देवायु, अन्य कोई ग्रायु नही हो सकती। दूसरा अपवाद यह है कि दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय के रूप में नही पलटता, और चारित्रमोहनीय, दर्शनमोहनीय नहीं बनता ।