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कमवाद
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८. उपशम--कर्मों को विद्यमान रहते भी उदय मे आने के लिए अक्षम बना देना उपशम है । जैसे अगार को राख से ऐमा दवा देना कि वह अपना काय न कर सके।
९. निधत्ति--कर्मों का सक्रमण और उदय न हो सकना निधत्ति है।
१०. निकाचना--कर्मों का ऐसे प्रगाढ रूप मे बन्धना कि उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण आदि न हो सके (इसमे भी विरल अपवाद हो सकता है)।
कर्मक्षय से लाभ-जो कर्म आत्मा की जिस शक्ति को नष्ट करता, न्यून करता या विकृत करता है, उसके क्षय से वही शक्ति प्रकट होती, पूर्ण होती या शुद्ध होती है । सुगमता के लिए उसका निर्देश कर देना अनुचित न होगा।
१ ज्ञानावरण के हटने से अनन्त ज्ञानशक्ति प्रकट होती है। २. दर्शनावरण के हटने से अनन्त दर्शनशक्ति जागृत होती है। ३. वेदनीय का क्षय अनन्त सुख प्रकट करता है । !
४. मोहनीय के क्षय से परिपूर्ण सम्यक्त्व और चारित्र का आविर्भाव होता है।
५. आयुकर्म के क्षय से अजर-अमरता की अनन्तकालीन स्थिति प्राप्त होती है।
६. नामकर्म के क्षय से अमूर्तत्व गुण प्रकट होता है। जिसे अनन्त मुक्तात्मा एक ही जगह अवगाहन कर सकते हैं।
७. गोत्र कर्म से अगुरुलघुत्व गुण प्राप्त होता है। ८ अन्तराय के क्षय से अनन्त गक्ति व विपुल लाभ प्राप्त होती है।
६ कर्म-बन्ध और कर्म-क्षय की प्रक्रिया का वर्णन तत्वचर्चा में किया जा चुका है।
पुनर्जन्म की प्रक्रिया आत्मा एक शाश्वत द्रव्य है। वह उत्पाद और विनाश से रहित होने पर भी परिणामी है। बाह्य और आन्तरिक कारणो से उसमे अनेक पर्याय उत्पन्न होते और नष्ट होते रहते है । ऐसा न होता तो पुनर्जन्म भी सम्भव न होता और पुण्य-पाप के फलस्वरूप होने वाले सुख-दुख का भोग भी मगत न होता।
यो तो परिणाम की धारा अविराम गति से प्रवाहित हो रही है, कोई क्षण नही जिसमे मूल अवस्था का सूक्ष्म परिवर्तन न होता हो, फिर भी सब से