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जैन धर्म स्थूल परिवर्तन पुनर्जन्म का है । प्रात्मा अपने वर्तमान शरीर का परित्याग करके नूतन शरीर ग्रहण करती है । यही पुनर्जन्म है ।
पुनर्जन्म के सम्बन्ध मे एक विचारक ने लिखा है कि-' मनुष्य इकाई नही है, परन्तु अनेकता का पुञ्ज है, वह सुषुप्त है, वह स्वयं चालित है। वह भीतर से असतुलित है, उसे जागना चाहिए। एक होना चाहिए, अपने आप संश्लिप्ट और मुक्त होना चाहिए । मनुष्य की कल्पना एक बीज से की जाती है, जो कि वीज के नाते मर जायेगा, और पौध के रूप मे पुनर्जीवित होगा । गेहूँ की दो ही सम्भावनाए है, या तो वह पिस कर आटा बन जाए, और रोटी का रूप ले ले, या उसे फिर वो दिया जाए, जिससे अकुरित होकर वह फिर पौधा वन जाय । मनुष्य, सम्पूर्ण और अन्तिम सत्ता नही है, वह ऐसी सत्ता है जो अपने आप को बदल सकती है, जो पुनर्जन्म ले सकती है। यह परिवर्तन घटित करके पुनः-पुन जन्म लेने के लिए, जागरित होने के लिए, यत्न करना सभी धर्मो का ध्येय है।"
जैनधर्म के अनुसार जीव आयुकर्म के उदय से जीवित रहता है। अपने जीवन-काल मे जीव क्षण-क्षण मे पूर्ववद्ध आयुकर्म के दलिको (पुद्गलो) को भोग रहा है ।२ युक्त दलिक पृथक् होते जाते है और जब आयुकर्म के समस्त दलिक भोग लिए जाते है तव जीव को वर्तमान शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करना पड़ता है।
यह एक अटल प्राकृतिक नियम है कि मत्यु से पूर्व ही जीव अगले जन्म के लिए आयु वाध लेता है । पहले की आयु समाप्त होते ही वह उस शरीर का त्याग कर देता है और उसी समय नवीन आयुकर्म का उदय हो जाता है। इसी स्थिति में जीव अगली योनि के लिए आता है।
श्रायुकर्म के दलिको का भोग दो प्रकार से होता है, जिसे हम प्राकृतिक और प्रायोगिक कह सकते है । स्वाभाविक क्रम से जो दलिक, जब उदय होने लगता है, उसी उसका समय भोग उदय मे आता है, यही प्रथम प्रकार है। मगर कभी-कभी पायुदलिक नियत समय से पहले ही उदय मे आ जाते है इसे अकाल-मृत्यु या साकस्मिकमरण भी कहते हैं, इसके सात कारण है--
१. "बौद्ध-धर्म के २५०० वर्ष" में सर्वपल्लि राधाकृष्णन् । २ आवीचिकमरण, भगवती, शतक १३, उ०७, पा० १९ ।