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कर्मवाद
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अज्झवसाणनिमित्ते, आहारे, वेयणाअपराघाते। फासे आणापाणू, सत्तविहं झिज्जए आऊ ॥
ठाणाग सूत्र, ठाणा ७ । अर्थात्--१ अत्यन्त तीव्र हर्प-शोक आदि, २ विप-शस्त्र आदि का प्रयोग, ३ आहार की अत्यधिकता या सर्वथा अप्राप्ति, ४. व्याधिजनित वेदना, ५ अाघात, ६ सर्प आदि का दशन और ७ श्वासनिरोध, इन सात कारणो से आयु का क्षय होता है, तात्पर्य यह है कि जो आयु धीरे-धीरे भोगी जाने वाली थी, वह इन में से किसी भी एक कारण के उपस्थित होने पर शीघ्र भोग ली जाती है।
आयु भोग लेने के पश्चात् आत्मा के प्रदेश कभी-कभी बन्दूक से गोली की भाति शरीर से बाहर एकदम निकल जाते है, और कभी धीरे-धीरे निकलते है । एकदम निकल जाना "समोहिया-मरण" कहलाता है, और धीरे-धीरे निकलना "असमोहिया-मरण" कहलाता है।
मरण के पश्चात् गति नामकर्म के उदय के अनुसार जीव को अगली गति मे जाना पडता है। उसे नवीन जन्म के योग्य स्थान मे पहुचा देना आनुपूर्वी नाम कर्म का काम है । आनुपूर्वी नामकर्म उसे नियत उत्पत्ति-क्षेत्र मे पहुचा देता है।
पुरातन शरीर त्याग कर नूतन शरीर ग्रहण करने के लिए जीव की जो गति होती है, वह विग्रहगति कहलाती है। विग्रह अर्थात् इस शरीर से नये शरीर मे जाने के लिये आत्मा की गति को विग्रहगति कहते है।
अन्यत्र कहा जा चुका है कि जैसे पृथ्वीतल पर बने हुए मार्गों से मनुष्यो का आवागमन होता है, उसी प्रकार गगनतल मे बनी हुई श्रेणियो के अनुसार ही जीव की गति होती है । पुनर्जन्म के लिए जाने वाले जीव को यदि सीधी श्रेणी मिल जाए तो, उसे इस महायात्रा में सिर्फ एक समय लगता है । सीधी श्रेणी न हो, और एक बार मुड़ना पड़े, तो दो समय और दो मोड खाने पडे, तो तीन समय लगते है । साधारणतया तीन समय में ही जीव अपने उत्पत्ति क्षेत्र मे पहुचता है, विरला अवसर ऐसा होता है कि जब चार समय लग जाते है ।
विग्रहगति के समय यद्यपि स्थूल शरीर नही रहता, तथापि कार्मण और तेजस नामक दो सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहते है। कार्मण शरीर के द्वारा ही उस समय जीव का व्यापार होता है, और वह उत्पत्ति स्थान पर पहुचता है।