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________________ १७२ जैन धर्म उत्पत्ति स्थान पर पहुचते ही जीव को अपने योग्य नई सृष्टि रचनी पड़ती है। नागनो मे छः पर्याप्तियाँ मानी गई है। पर्याप्ति का अर्थ है 'पूर्णता'। वे ये है-- १. आहारपर्याप्ति, २ गरीर-पर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति । ४. श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति, ५ भाषा-पर्याप्ति और ६ मन -पर्याप्ति । १. आहार पर्याप्ति - अपनी गति के अनुसार शरीर-निर्माण के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करने की गक्ति की पूर्णता। २. गरीर-पर्याप्ति गरीर-निर्माण की शक्ति की पूर्णता । ३. इन्द्रियपर्याप्ति इन्द्रियो के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करने और उन्हे इन्द्रियो के रूप मे परिणत करने की शक्ति की परि पूर्णता । ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति - श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने, उन्हे श्वासोच्छ्वास रूप में परिणत करने और फिर छोड़ने की गक्ति की पूर्णता । ५ भाषा-पर्याप्ति भाषावर्गणा के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करके, भाषा-रूप में परिणत करके, बोलने की गक्ति की पूर्णता। ६. मन -पर्णप्ति मनोवर्गणा के पुद्गलो को ग्रहण करके, उन्हें मन के रूप में परिणत करके, और उनकी सहायता से मनन करने की शक्ति की पूर्णता। उत्पत्तिस्थान में जीव सर्वप्रथम इन गक्तियो को प्राप्त करता है। इन में से एकेन्द्रिय जीवो को चार, हीन्द्रिय से लेकर अमनस्क पचेन्द्रिय तक के जीवो को पाच और नमनस्क पचेन्द्रिय जीवो को छहो शक्तियाँ प्राप्त होती है । इन शक्तियों के द्वारा जीव अपने गरीर, इन्द्रिय आदि का निर्माण करता हा निर्माण करने की यह गक्तियों से लगभग पौन घटे में प्राप्त हो जाती है,
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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