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मगर लोकाकाश से आगे गति सहायक धर्मद्रव्य नही है । अतएव वहाँ उसकी गति का निरोध हो जाता है, और मुक्तात्मा लोकाग्र भाग में ही प्रतिष्ठित हो जाती है । इस प्रकार समस्त औपाधिक भावो से छुटकारा पा लेना, चैतन्यानभूति की पूर्ण विशुद्धि हो जाना, या श्रात्मा का परम आत्मा बन जाना ही मोल है । यही ईश्वरत्व की प्राप्ति है ।
सम्यग्ज्ञान
ससार-दशा में, श्रात्मा मे ज्ञान और प्रानन्द के जो विकृत ग्रग अनुभव मे श्राते है, वे श्रात्मा के स्वाभाविक जान और श्रानन्द नामक गुण के विकार है। मुक्त - दगा मे वह अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट हो जाते है, अतएव मुक्तात्मा पूर्ण ज्ञान, और पूर्ण एवं ग्रनिर्वचनीय श्रानन्द का अनुभव करते हैं ।
मोक्ष-लाभ ही मानव-जीवन का चरम और परम पुरुषार्थ है । यही समस्त साघनामो का सार है ।
प्रमाण-मीमांसा
जैनशास्त्रो मे ज्ञान की मीमासा के दो प्रकार उपलब्ध होते है - प्रागमिक पद्धति से और तार्किक पद्धति से । श्रागमिक पद्धति, और तार्किक पद्धति मे वस्तुत. कोई मौलिक भेद नही है, तथापि दोनो का वर्गीकरण जुदा-जुदा है । ग्रागमिक पद्धति के वर्गीकरण के अनुसार ज्ञान के पाच भेद है— मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, ग्रवविज्ञान, मन पर्यायज्ञान, और केवल ज्ञान । इनका दिग्दर्शन हम आगे करेगे । तार्किक पद्धति के अनुसार सगय, विपर्यास और ग्रनध्यवसाय से रहित सम्यग्ज्ञान, प्रमाण कहलाता है । प्रमाण ज्ञान को चार भागो मे विभक्त किया गया है ।
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१. प्रत्यक्ष २. श्रनुमान ३ श्रागम और ४. उपमान ।
इनका सक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है
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१ प्रत्यक्ष :- ३ विशद ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान में वस्तुगत विशेषताए प्रचुरता से प्रतीत होती है, वह प्रत्यक्ष है । पूर्वोक्त पाच ज्ञानो मे से मति ज्ञान
१ उत्तराध्ययन, अ० ३६, गा० ५७ ।
२. पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे, अनुयोगद्वार । प्रमाणद्वारम् । ३. से किं तं पच्चक्खे ? अनुयोगद्वार प्रमाणद्वारम् ।