________________
९२
जैन नर्म
और श्रुत ज्ञान परोक्ष' है और अन्तिम तीन प्रवधि, मन पर्याय, और केवल ज्ञान- प्रत्यक्ष' है । प्रत्यक्ष मे भो श्रवविज्ञान और मन पर्यायज्ञान विकल या यागिक प्रत्यक्ष है, और केवल ज्ञान परिपूर्ण होने के कारण सकल प्रत्यक्ष कहलाता है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान वस्तुत परोक्ष है, किन्तु लोक-प्रतीति के अनुसार वह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाते हैं ।
२. अनुमान – ३ – ४ अनुमान तर्कशास्त्र का प्राण है । यद्यपि अनुमान प्रत्यक्षमूलक होता है, तो भी उसका अपना विशिष्ट स्थान है । अनुमान के द्वारा ही हम संसार का अधिकतम व्यवहार चला रहे है। अनुमान के आधार पर ही तर्कशास्त्र का विशाल भवन खडा हुआ है ।
कार्य-कारण के सिद्धान्त से अनुमान प्रमाण का प्रादुर्भाव होता है । ग्रग्नि से ही धूम्र की उत्पत्ति होती है, और अग्नि के अभाव में धूम्र उत्पन्न नही हो सकता, इस प्रकार का कार्य-कारण भाव व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध कहलाता है । इसका निश्चय तर्क प्रमाण से होता है । अविनाभाव निश्चित हो जाने पर कारण को देखने से कार्य का बोध हो जाता है । वही बोध अनुमान कहलाता हे | किसी जगह धूम से उठते हुए गुब्बारे को देखकर अदृष्ट अग्नि की कल्पना स्वत होती है" यही अनुमान ज्ञान है ।
कही कोई शब्द सुनाई देता है, तो श्रोता उसी समय निश्चित कर लेता है कि यह शब्द मनुष्य का है अथवा पशु का है । मनुष्यो मे भी अमुक मनुष्य का है, और पशुओ मे भी ग्रमुक पशुजाति का है । इस प्रकार केवल स्वर से स्वर वाले को जान लेना अनुमान का फल है ।
अनुमान के दो भेद है - स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । अनुमानकर्त्ता जब अपनी अनुभूति से स्वयं ही किसी तथ्य (ज्ञेय - साध्य ) का हेतु
१. परोक्खे गाणे दुविहे, स्थानांग सूत्र, स्था० २ । २. तिविहे पण्णते, अनुयोगद्वार प्रमाणद्वारम् । ३ से कि तं अणुमाणे, अनुयोगद्वार० प्रमाणद्वारम् । ४. अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वारम्, मल्लघारीया टीका । ५ अग्गिं धूसेणं
६. सखं सद्देणं