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________________ आध्यात्मिक उत्क्रान्ति ४. निद्रा - आलस्य । ५. नी, भोजन यादि के विषय मे निष्प्रयोजन बातें करना। गन्यावृष्टि पोर नती होने पर भी प्रमाद का अस्तित्त्व होने से इसे मनागचान नहते है। ७. अप्रमत्तगुणरयान-~-पारमार्थी साधक की परम पवित्र भावना के बल पर कभी-कभी ऐगी अवस्था प्राप्त होती है कि अन्त.करण मे उठने वाले विचार नितान्त शुद्ध और उज्ज्वल हो जाते है और प्रमाद नष्ट हो जाता है। पर गमचिन्नन में मावधान रहता है। उस समय की स्थिति अप्रमतगुणस्थान है । यह दो प्रकार के होते है १. दम्यान अप्रमत्त, २. सातिशय अप्रमत्त। वस्थान अप्रमत माधक छठे गुणस्थान में सातवें में बार-बार चढना और फिर छठे में उतरता है। जब अात्मिक तल्लीनता की स्थिति मे पहुचता है नो नानवे गुणस्थान पर चढ जाता है और जब वह तल्लीनता नहीं रहती और गमनागमन, भाषण, भोजन आदि गहर की किसी क्रिया में व्याप्त होता है तो छो गणस्थान में उतर पाता है । किन्तु भावो का रूप अत्यन्त शुद्ध बन जाता है मो नाकमातिगय प्रमत होकर अस्मलित गति मे ऊपर चढता है । उस समय का मानिशय अप्रमत्त कहलाता है। नातिगय अप्रमत्त माधु के ऊपर चढने के भी दो प्रकार है-जिन्हें प्रागम की परिभापा में उपगम श्रेणी और क्षपक श्रेणी कहते है। जो माधक चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम करता हुआ और ऊपर चढता है, वह आठवे, नौवे, दसवे और ग्यारहवें गुणस्थान तक जा पहुचता है, किन्तु वहाँ उसकी प्रगति रुक जाती है और वह नीचे गिरता है, शान्त हुए कर्म फिर जागृत हो जाते है, अत. उमे नीचे आना ही पड़ता है, किन्तु जो साधक मोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ ऊपर चढता है, वह दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवे गुणस्थान में पहुचकर तेरहवें गुणस्थान मे जा पहुचता है और परमात्मदशा प्राप्त कर लेता है। ८. अपूर्वकरण---यहाँ करण का अभिप्राय अध्यवसाय, परिणाम या विचार है, अभूतपूर्व अध्यवसायो का उत्पन्न होना अपूर्वकरण गुणस्थान है। इस गणस्यान में चारित्र मोहनीय कर्म का विशिष्ट क्षय या उपशम करने से साधक को विशिष्ट भावोत्कर्ष प्राप्त होता है । इस गुणस्थान मे विभिन्न समयवर्ती जीवो
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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