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जैन धर्म ४. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-सम्यग्दर्शन विघातक मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम करके जिस आत्मा ने सम्यग्दर्शन-शुद्ध श्रद्धा की प्राप्ति कर ली है, किन्तु चारित्र विघातक-मोहनीय कर्म का क्षय न कर सकने के कारण जो व्रत अंगीकार नही कर सकती, उस आत्मा की अवस्था अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहलाती है।
__सम्यग्दर्शन क्या है ? यह अन्यत्र बतलाया जा चुका है । मुक्ति के तीन कारणो मे यह अनन्यतम है। यहाँ से मुक्ति की साधना आरम्भ होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि जीव भले संयम का आचरण नही कर सकता, फिर भी उसे आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह आत्मा-अनात्मा एव हित-अहित के विवेक से सम्पन्न होता है। भोगो से पिण्ड नही छुडा पाता, फिर भी उनमें अलिप्त रहता है। वह अपने विचारो पर पूर्ण नियन्त्रण रखता है । आर्त जीवो की पीड़ा देखकर उसके हृदय से करुणा का विमल स्रोत प्रवाहित होने लगता है । उसका लक्ष्य और बोध गुद्ध हो जाता है और वह सयम के पथ पर चलने को उत्कंठित रहता है।
५ देशविरति गुणस्थान--वही सम्यग्दृष्टि जीव जब अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि व्रतो का आशिक रूप से पालन करने में समर्थ हो जाता है-गृहस्थधर्म का आचरण करने लगता है, सूक्ष्म पाप का त्याग न कर सकने पर भी स्थूल पाप का त्याग कर देता है, तब वह इस गुणस्थान मे पहुँचता है। इस गुणस्थान वाले के चारित्र का स्वरूप चारित्र के प्रकरण में विस्तार से बतलाया गया है।
६. प्रमत्तगुणस्थान--आत्मा को अपनी हीनता पर विजय पाने का विश्वास हो जाता है, तब वह अपनी अपूर्णताओ को समाप्त करके सर्वत महाव्रती वन जाता है, सूक्ष्म पापो का भी परित्याग कर देता है । उस समय वह प्रमतगुणस्थान मे होता है। साधक इस गुणस्थान मे साधु तो बन जाता है, किन्तु प्रमाद के वल को समाप्त नही कर पाता।
प्रमाद पाँच प्रकार का है जैसे कि .
आलस्य, कषाय, निद्रा, विकथा, इन्द्रिय-भोगो के कारण कर्त्तव्य के प्रति मन मे अनादर का भाव उत्पन्न होना प्रमाद है। अर्थात्
१ मद्य - मादकता-सम्बन्धी। २. विपय - मोह और कामुकता के जनक रूप, रस आदि । ३. कपाय - क्रोध, मान, कपट, लोभ ।