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जैन धर्म के परिणामो मे विसदशता अथवा एक समयवर्ती जीवो मे विसदृशता और कभी सदृशता भी पाई जाती है।
९. अनिवृत्तिकरण--सातवे गुणस्थान मे जब सातिगय अप्रमत अवस्था आती है तो साधक के परिणाम उत्कृष्ट हो जाते है, किन्तु इस स्थान मे उत्पन्न हुए भावोत्कर्ष की निर्मल विचारधारा और भी तीन हो जाती है। इस गुणस्थान मे विचारो की तरतमता नष्ट हो जाती है। विचारो की सामान्यगामिनी वृत्ति केन्द्रित और सम समान हो जाती है। यहाँ साधक की सूक्ष्मतर और अव्यक्ततर काम-सम्बन्धी वासना, जिसे वेद भी कहते है, समूल विनष्ट हो जाती है।
१०. सूक्ष्मसम्पराय--मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करके आत्मार्थी साधक जब समस्त कषाय को नष्ट कर देता है, केवल लोभ का अतिशय सूक्ष्म अश ही शेष रह जाता है । उसी प्रात्मोत्कर्ष की ऊँची अवस्था का नाम सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान है।
११ उपशान्तमोह गुणस्थान--कोई योद्धा शत्रु-सेना को नष्ट करके किसी प्रयोग से थोडी देर के लिए वेहोश करता हुआ उसके व्यूह मे प्रवेश करता है । उसकी क्या स्थिति होती है ? शत्रु-सेना थोडी देर मे होश मे आकर उसे घेर लेती है और उसका फल है उस योद्धा का अन्त होना । इसी प्रकार जो साधक मोहनीय कर्म को नष्ट (क्षीण)न करके, सिर्फ उपशान्त करके आगे बढता है, उसका भी अवश्य पतन हो जाता है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ऐसा सावक थोडी-सी देर इस ग्यारहवे गुणस्थान मे रहकर और समस्त मोह को पूर्ण रूप से उपशान्त करके भी नीचे गिर जाता है।
१२ क्षीणमोह गुणस्थान--मोहकर्म क्षय करता हुआ अात्मा, दसवे गुणस्थान मे अवशिष्ट लोभाग का भी जब क्षय कर देता है और पूर्ण वीतरागता के उच्च शिखर पर ग्रासीन हो जाता है, तो इस गुणस्थान की प्राप्ति होती है।
मोहकर्म समस्त कर्मों मे प्रधान है, और वही समस्त कर्मों को आश्रय दिया करता है, बारहवे गुणस्थान में उसके क्षीण होने पर थोडी-सी देर मे ही में जानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीन कर्म भी नष्ट हो जाते है।
१३ सयोगी केवलो गुणस्थान--ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि के क्षय हो जाने से इस गुणस्थान मे आत्मा सर्वज, सर्वदर्शी और अनन्त आध्यात्मिक वीर्य से सम्पन्न हो जाता है । यह जीवनमुक्त की दशा है।