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आध्यात्मिक उत्क्रान्ति
१५३ इस गुणस्थान मे सयोग गब्द जोडने का अभिप्राय यह है कि मन, वचन और काय का यहाँ व्यापार-स्पन्दन होता रहता है ।
१४. अयोगीकेवली गुणस्थान--इस गुणस्थान का काल अत्यन्त थोडा है। न, इ उ, . ल, इन पांच ह्रस्व-स्वरो का मध्यम वेग से उच्चारण करने मे जितना समय लगता है, बन उतना ही इस गुणस्थान का समय है । इस गुणस्थान में काय और वचन का व्यापार तो निरुद्ध हो ही जाता है, पर मानमिक वृत्तियाँ भी पूरी तरह नष्ट हो जाती है । आत्मा अपने मूल स्वरूप मे स्थिर हो जाता है। नसार-दगा का अन्त हो जाता है। शेष चारो नाम, गोत्र, अन्तराय और प्रायुप्य आदि अघातिक कर्म भी नष्ट हो जाते है।
गुणस्थान का अन्त होना ही जन्म-मरण का अन्त होना है। प्रात्मा विदेह अवस्था प्राप्त कर शाश्वत मुक्ति प्राप्त कर लेती है।
गुणस्थानो के सम्बन्ध में विचार करने से प्रात्मा के उत्क्रान्ति क्रम की कल्पना पा सकेगी। प्रत्येक प्रात्मा पहले-पहल प्राथमिक भूमिका में होता है । तत्पश्चात् यात्मवल प्रकट होने पर उभर पाता है। चतुर्थ भूमिका में आने पर उसकी दृष्टि यथार्थ हो जाती है । दृष्टि सिद्ध होने के पश्चात् वह क्रियात्मक रूप से मुक्तिपथ पर चलना प्रारम्भ करता है और वारहवे गुणस्थान में निरावरण होकर तेरहवे गुणस्थान में सशरीर परमात्मा बन जाता है । चौदहवे गुणस्थान के अन्त में मुक्तिधाम प्राप्त कर लेता है।
उत्क्रान्ति के इस क्रम से यह भी स्पष्ट होगा कि जैनधर्म ने किसी एक को अनादि सिद्ध परमात्मा स्वीकार नहीं किया है। प्रत्येक प्राणी अपने पुरुषार्थ द्वारा परमात्मपद पाने का अधिकारी है।