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________________ १९८ जैन धर्म २. सत्यमहाव्रत--मन से सत्य सोचना, वाणी से सत्य बोलना और काय से सत्य का आचरण करना और सूक्ष्म असत्य का भी कभी प्रयोग न करना, सत्य महाव्रत है। आत्मसाधक पुरुष सत्य को भगवान मानता है। वह मन, वचन या काया से कदापि असत्य का सेवन नहीं करता। उसे मौन रहना प्रियतर प्रतीत होता है, फिर भी प्रयोजन होने पर परिमित, हितकर, मधुर और निर्दोप भापा का ही प्रयोग करता है। वह विना सोचे-विचारे नही बोलता। हिसा को उत्तेजना देने वाला वचन नही निकालता । हसी-मजाक आदि बातो से, जिनके कारण असत्य-भापण की सभावना रहती है, उससे दूर रहता है । __३. अचौर्य महाव्रत--मुनि संसार की कोई भी वस्तु, उसके स्वामी की माना लिए विना ग्रहण नहीं करते, चाहे वह शिष्य आदि हो चाहे निर्जीव घास आदि हो । दात साफ करने के लिए तिनका जैसी तुच्छ चीज भी पाजा लिए विना नहीं लेते। ४ ब्रह्मचर्य महाव्रत--साधक कामवृत्ति और वासना का नियमन करके पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। इस दुर्धर महाव्रत का पालन करने के लिए अनेक नियमो का कठोरता के साथ पालन करना आवश्यक होता है । उनमें से कुछ इस प्रकार है (क) जिस मकान मे स्त्री का निवास हो, उसमे न रहना ।' (ख) स्त्री के हाव-भाव, विलास आदि का वर्णन करना। (ग) स्त्री-पुस्प का एक आसन पर न बैठना । (घ) स्त्री के अंगोपांगो को स्थिर दृष्टि से न देखना । (ड) स्त्री-पुरुष के कामुकतापूर्ण गब्द न सुनना । (च) अपने पूर्वकालीन भोगमय जीवन को भुला देना और ऐसा अनुभव करना कि शुद्ध साधक के रूप मे मेरा नया जन्म हुआ है। (छ) सरस, पौष्टिक, विकारजनक, राजस और तामस आहार न करना। (ज) मर्यादा से अधिक आहार न करना। मुर्गी के अडे के बराबर १ जैसे साधक पुरुष के लिए स्त्री का सम्पर्क वर्ण्य है, उसी प्रकार स्त्री के लिए पुरष का सम्पर्क भी वर्जनीय है।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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