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चारित्र और नीतिशास्त्र
१९७ असह्य होता है । यह सत्य है कि उसकी साधना का केन्द्रविन्दु आत्मोत्थान ही है, किन्तु लोककल्याण उसके प्रात्मोत्थान का साधन होती है । आत्मकल्याण के उद्देश्य से लोक कल्याण करने करने वाले के चित्त मे अहकार नही उत्पन्न होता, और इन प्रकार माधु अपनी साधना को कलुपित होने से बचा लेता है, क्योकि उसके मन में यह भाव बरावर वना रहता है कि मैं अपनी भलाई के लिए दूसरो की भलाई कर रहा हू । जैन साधु वह नौका है, जो स्वय तैरती है और दूसरो को भी तारती है।
भगवान महावीर कहते है--साधुओ । श्रमण निर्ग्रन्थो के लिए लाघवकम-से-कम साधनो से निर्वाह करना, निरीहता-निष्काम वृत्ति, अमूच्छा-अनासक्ति, प्रागृद्धि, अप्रतिवद्धता, अक्रोधता, अमानता, निष्कपटता और निर्लोभता ही प्रशस्त है।
इस प्रकार की साधना के द्वारा साधु अपने जन्म-मरण का अन्त करता है, और पूर्ण सिद्धि लाभ कर परमात्मपद प्राप्त कर लेता है।
यो तो जैनशास्त्रो मे साधु के आचार-विचार की प्ररूपणा बहुत विस्तार से की गई है । उसका सक्षिप्त वर्णन करने पर भी कई पुस्तके बन सकती है। तथापि यहा अतिसक्षेप मे उसका दिग्दर्शन कराना है।।
पांच महावत पाच महाव्रत साधुत्व की अनिवार्य शर्त है। इनका भलीभाति पालन किए बिना कोई साधु नही कहला सकता। महाव्रत इस प्रकार है
१ अहिंसामहावत--जीवनपर्यन्त अस और स्थावर सभी जीवो की मन, वचन, काय से हिसा न करना, दूसरो से न कराना, और हिंसा करने वाले को अनुमोदन न देना, अहिसा महाव्रत है।।
__ साधु का मन अमृत कुण्ड, वाणी अमृत का प्रवाह, और काया अमृत की देह के समान होती है। प्राणी मात्र पर वह अखड करुणा की वृष्टि करता है । अतएव वह निर्जीव हुए अचित्त जल का ही सेवन करता है। अग्निकाय के जीवो की हिसा से बचने के लिए अग्नि का उपयोग नही करता । पखा आदि हिलाकर वायु की उदीरणा नहीं करता । कन्द, मूल, फल आदि किसी भी प्रकार की वनस्पति का स्पर्श तक नहीं करता। पृथ्वी काय के जीवो की रक्षा के लिए जमीन खोदने आदि की क्रियाए नही करता । महाव्रत-धारी स्थावर और चलतेफिरते त्रस जीवो की हिसा का पूर्ण त्यागी होता है।