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जैन धर्म
करने वाले व्यक्ति की योग्यता श्रवश्य निर्धारित कर दी गई है । जिसे शुभ तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो चुकी है, जिसने आत्मा ग्रनात्मा के स्वरूप को समझ लिया है, जो भोग को रोग और इन्द्रियविपयों को विप समझ चुका है, अतएव जिसके मानम-सर में वैराग्य की ऊर्मिया लहराने लगी है, वही त्यागी बनने के योग्य है ।
पूर्ण विरक्त होकर, शरीर-सम्वन्धी ममत्व का भी परित्याग करके जो आत्मा-आराधना में ही सलग्न रहना चाहता है, वह मुनि धर्म अगीकार करता है ।
समाज का रक्षक, राष्ट्र का सैनिक और परिवार का पोपक वन कर ही मनुष्य पूर्णता नही प्राप्त कर सकता । उसे इन कर्तव्यो से भी पार होकर जीवन के अन्तिम मार्ग को अकेले होकर भी पार करना पड़ता है । तभी ग्रात्मा को सर्वोच्च सिद्धि का लाभ होता है । चरम साधना के वीहड़ पथ पर एकाकी चल पडने वाला साधक ही मुनि, श्रमण साधु, भिक्षु या त्यागी कहलाता है ।
श्रमणत्व की उच्च भूमिका स्पर्श करने के लिए गृह-परिवार, धन सम्पत्ति ग्रादि बाह्य पदार्थों का त्याग करना पड़ता है, मगर यही पर्याप्त नहीं है । सच्चा श्रमण वही है जो जीवन मे गहरी जड जमाये हुए आन्तरिक विकारो पर विजय प्राप्त कर सकता है तथा जिसके लिए मान-अपमान, निन्दा-स्तुति और जीवन-मरण एकाकार हो जाते हैं, वह तिरस्कार के गरल को अमृत बना कर पी जाता है । मगर कटुक वचन बोलकर किसी का तिरस्कार नही करता । वह अनीह और अनासक्त रह कर भी सम्पूर्ण पृथ्वी की अपना मानता है और ससार के जीवो को मैत्री श्रौर करुणा प्रदान करता है । वह चलती फिरती सस्था बनकर जगत् मे आध्यात्मिकता की उज्ज्वल ज्योति प्रज्वलित रखता है ।
श्रमण का अहम् इतना विराट् रूप धारण कर लेता है कि किसी भी कृत्रिम परिधि में वह समा नहीं सकता । इसलिए वह राष्ट्रीय ग्रहम् का समर्थन नही करता । उसके आगे यह सब मनोवृत्तियां सकीर्ण है । श्रवास्तविक है । खट जीवन के प्रति उसकी ग्रास्था है, विभिन्न रग-रूपो में बटी टुकडियो मे नही ।
साबु ससार की भलाई मे कभी विमुख नही होता, परन्तु उसका प्रतिफल पाने की किसी भी प्रकार की कामना नही रखता । वह अपनी पीडा को वरदान मानकर तटस्थ भाव से सहन कर जाता है, मगर परपीड़ा उसके लिए
१. उत्तराध्ययन, अ० १९, गा०८९, ९०, ९२ ।