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चारित्र और नीतिशास्त्र
१९९ अधिक से अधिक बत्तीम कौर भोजन करना साधु के आहार की
मर्यादा है। (अ) स्नान, मंजन, शृगार आदि करके आकर्पक रूप न बनाना।
५. अपरिग्रह महाव्रत-माधु परिग्रहमात्र का त्यागी होता है, फिर भले ही वह घर हो, धन-धान्य हो, या द्विपद-चतुप्पद हो या कुछ अन्य हो । वह मदा के लिए मन, वचन, काय से समस्त परिग्रह को छोड़ देता है । पूर्ण असग अनासक्त, अपरिग्रह और अममत्वी होकर विचरण करता है। साधुता का पालन करने के लिए उसे जिन उपकरणो की अनिवार्य आवश्यकता होती है, उनके प्रति भी उसे ममत्व नहीं होता।
यद्यपि मूर्छा को परिग्रह कहा गया है, तथापि बाह्य पदार्थो के त्याग से अनासक्ति का विकास होता है, अतएव वाह्य पदार्थो का त्याग भी आवश्यक माना गया है।
पांच समिति पाप से बचने के लिए मन की प्रशस्त एकाग्रता, समिति कहलाती है। महाव्रतो की रक्षा के लिए पाँच प्रकार की समितियाँ साधु धर्म का आवश्यक अग हैं। वह इस प्रकार है१ र्यासमिति
जीवो की रक्षा के लिए, सावधानी के माथ, चार हाथ आगे की भूमि देखते
चलना। २. भापा-समिति
हित, मित, मधुर और सत्य भाषा बोलना । ३. एपणासमिति
निर्दोप एव शुद्ध आहार ग्रहण करना । ४ पादाननिक्षेपणसमिति - किसी भी वस्तु को सावधानी के साथ
उठाना या रखना, जिससे किसी जीव-जन्तु
का घात न हो जाय। ५. परिष्ठापनिका-समिति - मल-मत्र आदि को ऐसे स्थान पर विजित
करना जिससे जीवोत्पत्ति न हो और किमी
को घृणा या कष्ट भी न हो।
तीन गुप्ति इन्द्रियो का और मन का गोपन करना, अर्थात् उन्हे असत्य प्रवृत्ति से हटाकर आत्माभिमुख कर लेना, गुप्ति के तीन भेद इस प्रकार है