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________________ सम्यग्ज्ञान १७ मध्यम रीति से इन दोनो नयो के सात भेद किये गये है :-१ १. नंगम २ सग्रह ३. व्यवहार ४ ऋजुसूत्र ५. शन्द ६. समभिरूढ और ७. एवंभूत । इनका मक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : १. नंगम :-- निगम अर्थात् लोकरूढि या लौकिक सस्कार से उत्पन्म हुई कल्पना को नैगम नय कहते है। जैसे चैत्रशुक्ला त्रयोदशी आने पर कहनाअाज महावीर भगवान् का जन्म दिन है। वास्तव में भगवान महावीर का जन्म अढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ था, फिर भी लोकरूढि के अनुसार ऐसा कहा जा मकता है । यद्यपि रास्ता कही आता-जाता नही, फिर भी लोग कहते है -यह गस्ता दिल्ली जाता है। फूटे घड़े में पानी चूता है, मगर दुनिया कहती है, घड़ा चता है । जिस दृष्टिकोण से ऐसे कथन सही समझे जाते है, वह दृष्टिकोण नैगम नय कहलाता है। २. संग्रहनय--२ सग्रहनय का अर्थ है अभेद दृष्टि । जड और चेतन तत्त्वो की जो धारा समान रूप से प्रवाहित हो रही है, उसी सामान्य तत्त्व को मुख्य करके सत्ताधर्म की प्रधानता को लक्ष्य मे रखकर सब को एक रूप मानने वाला अभिप्राय सग्रहनय कहलाता है। जड़ और चेतन एक है, क्योकि दोनो मे एक ही सत्ता समान रूप से व्याप्त है। सब आत्मा एक है, क्योकि उनकी स्वाभाविक चेतना में कोई विलक्षणता नहीं है । मनुष्य मात्र एक है, क्योकि मनुष्यत्व जाति एक है । इस प्रकार समान धर्म के आधार पर एकत्व की स्थापना करना सग्रहनय है। स्मरण रखना चाहिए कि जिन वस्तुओ में किसी समान धर्म के आधार पर एकता की कल्पना की गई है, उनमे बहुत से विशिष्ट धर्म भी होते है, जिनके आधार पर उन्हें एक दूसरे से पृथक किया जा सकता है। मगर सग्रह नय उन्हे स्वीकार नहीं करता। १. से कि तं णए ? सत्तमूलणया पण्णता, स्थानांगसूत्र स्था० ७, सूत्र ५५२ । २ अनुयोगद्वार, नयद्वार, गा० १३७ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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