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जैन धर्म ____३. व्यवहार नय ---' पदार्थो मे रहे हुए विशेष अर्थात् भेदकारी धर्मों को प्रधान करके उनमे भेद स्वीकार करने का दृष्टिकोण व्यवहार नय है।
संग्रह नय अभेद की प्रधानता पर चलता है, मगर अभेद से लोक-व्यवहार नही चल सकता। जड़ और चेतन सत्ता की समानता के कारण भले ही एक हो, मगर जड मे चेतना नही है, और चेतन जीव मे चेतना है । इस कारण दोनो की भिन्नता भी वास्तविक है। मनुष्यत्व के लिहाज से मनुष्य मात्र एक है सही, फिर भी मनुष्य-मनुष्य मे प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला अन्तर भी वास्तविक है। इस प्रकार पृथक्करण वादी दृष्टिकोण व्यवहारनय है ।
लोक-व्यवहार अभेद से नही, भेद से चलता है। सग्रहनय की दृष्टि मे साडी और पगड़ी एक है, मगर साड़ी की जगह पगड़ी, और पगड़ी की जगह साडी से काम नही चलता, दोनो में भेद है और उस भेद को स्वीकार करना ही व्यवहार नय है।
यह तीन नय साधारणतया द्रव्य को ही प्रधान रूप से ग्रहण करते है, अतएव इन्हे द्रव्याथिकनय कहा गया है ।
४. ऋजुसूत्रनय ---२ कभी कभी मानवीय बुद्धि भूत और भविष्यत् के स्वप्नो को ठुकरा कर तात्कालिक लाभालाभ को ही लाभालाभ स्वीकार करती है । भूतकालीन वस्तु विनष्ट हो जाने के कारण असत् है, और भविष्यत्कालीन उत्पन्न न होने के कारण असत् है। उनकी कोई उपयोगिता नही । वर्तमानकालीन समृद्धि ही वास्तव मे समृद्धि है। जो धन नष्ट हो गया, और भविष्य मे मिलेगा, वह कोरा स्वप्न है । आज उसकी कोई सत्ता नही।
इस प्रकार बुद्धि जव वर्तमान को ही सर्वस्व मानकर चलती है, तो वह वर्तमान विषयक विचार ऋजुसूत्रनय कहलाता है।
५. शब्दनय --3 पूर्वोक्त चार नय वस्तु को प्रधान रख कर विचार करते है । अतएव इन्हे अर्थनय कहते है। शब्दनय और इससे आगे के समभिरूढ तथा एवभूतनय शब्द सम्बन्धी विचार प्रस्तुत करते है। अत यह तीनो
१. अनुयोगद्वार, नय द्वार, गा० १३७ । २. " " " " १३८ ।