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सम्यग्ज्ञान
शब्दनय कहलाते है। गन्दनय पर्यायवाची शब्दो को एकार्थ स्वीकार करता है, मगर उनमे यदि काल, लिंग, कारक, वचन या उपसर्ग की भिन्नता हो तो उन्हे एकार्थक नही मानता।
लेखक लिखता है-'अयोध्या नगरी थी।' यद्यपि अयोध्या नगरी लेखक के समय में भी है, फिर भी वह 'है' न लिखकर 'थी' क्यो लिखता है ? इस प्रश्न का उत्तर शब्दनय यह देता है कि कालभेद से अयोध्या नगरी मे भी भेद हो जाता है । अतएव लेखक के समय को अयोध्या और है तथा जिस समय की घटना वह लिखता है, उस समय की अयोध्या और थी। इसीलिए लेखक 'अयोध्या थी,' ऐसा लिखता है, 'अयोध्या है' नही लिखता है। यह कालभेद से अर्थभेद का उदाहरण है।
इसी प्रकार लिंगभेद से भी अर्थभेद हो जाता है यथा, नर और नारी । उपसर्ग का भेद भी अर्थ मे भेद उत्पन्न कर देता है। जैसे प्रस्थानगमन, सस्थान-ग्राकार । अथवा आहार, विहार, प्रसार, परिहार, सहार, नीहार आदि।
इन उदाहरणो के आधार पर कारक और वचन आदि के भेद से वस्तुभेद हो जाने की कल्पना की जा सकती है।
६ समभिरूढ़ नय--१ यह नय शब्दनय से भी एक कदम आगे बढकर सूक्ष्म शाब्दिक चिन्तन करता है। कहता है-अगर काल और लिंग आदि की भिन्नता अर्थभेद उत्पन्न कर सकती है तो व्युत्पत्ति (शब्दो की बनावट) के भेद से भी वस्तुभेद क्यो न माना जाय ? अत समभिरूढनय विभिन्न पर्यायवाची शब्दो को एकार्थक नही मानता। इसके मतानुसार सभी कोष मिथ्या ह, क्योकि एकार्थ बोधक अनेक गब्दो का प्रतिपादन करते है । कोष 'राजा' 'नृप' और 'भूप' को एकार्थक बतलाता है, किन्तु इनकी बनावट पर ध्यान दिया जाय तो उनका अर्थभेद स्पष्ट है। राजदण्ड को धारण करने वाला: 'राजा ।' मनुष्य का पालन करने वाला 'नृप।' पृथ्वी का रक्षण करने वाला, 'भूप' कहलाता है। अगर 'नृप' और 'भूप' शब्दो का एक ही अर्थ माना जाय तो मनुष्य और पृथ्वी का अर्थ भी एक हो जाना चाहिए।
वैयाकरणो मे 'शब्दभेदात् अर्थभेद -अर्थभेदात् शब्दभेद' अर्थात्
१ अनुयोगद्वार, नयद्वारम्, गाथा १३९ ।