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अतीत की झलक
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यदि ऐतिहासिक गोव एवं खोज की दृष्टि से देखा जाय तो आज २५०० वर्ष पहले के पिछले जमाने मे श्रमण संस्था को किन किन कष्टो का सामना करना पडा होगा, उसकी कल्पना भी नही की जा सकती ।
भयंकर बनान्तरो में होकर साधु श्रमणो को विहार करना पडता था । श्रावादिया दूर-दूर तथा बहुत थोडी थी । जंगल, पहाड नदी-नाले, रेगिस्तान सब मे से होकर अपनी राह, आप बनानी पडती थी, किन्तु ध्यान रहे, श्रमण, ससार की बाधाओ के वीच अपनी राह स्वयं वनाने के लिए ही तो म्राया है । लीक-लीक पर चलना महावीर का मार्ग नही था । क्योकि लीक पर ब्राह्मणों की याज्ञिक हिंसा और क्षत्रियो के उद्दण्ड जीवन की गहरी छाप पड़ी थी ।
उस काल मे राज्यो की श्रराजकता भी साधुग्रो के लिए अत्यन्त कष्टकारी श्री । किसी राजा के मर जाने पर, राज्य सत्ता प्राप्ति के लिए जो बखेडे खडे होते, उनका विषैला प्रभाव साधुओ पर भी पडता और उन्हे अनेक भाति त्रास दिये जाते ।
उस समय चोर डाकुओ के गाव के गाँव बसते थे, जिन्हे चौरपल्ली कहा जाता था। चोरों का नेता उनका नेतृत्व करता । ये चोर साधु और साध्वियो को बडा दुख देते थे ।
यदि राजा विधर्मी हुआ तो जैन साधुओ को बड़ी कठिनाइयाँ उठानी पडती थी । उन्हें बहुधा गुप्तचर समझ कर पकड लिया जाता था ।
बस्ती के निकट रहने वाले साधुओ को वडी कठिनाइयाँ उठानी पडती थी । उन्हें बहुधा अपने उपाश्रय अथवा स्थानक का पहरा देना पड़ता था । बहुधा दुराचारिणी स्त्रियां अपन भ्रूण उनके निकट छोड़कर चली जाती थी । चोर चोरी का माल छोड़कर चले जाते थे । सर्प, बिच्छु और कुत्ते आदि से अन्य साथी संतो की निरन्तर रक्षा करनी पड़ती थी ।
दुष्काल की भयकरता का प्रभाव भी बहुत बुरा पडता था । पाटलिपुत्र का दुष्काल कुख्यात है, जबकि भिक्षा के अभाव मे सहस्रो साधुओ को देश छोड़ना पड़ा था और अनेक ग्रागम ग्रथ नष्ट हो गए थे ।
इस प्रकार के अनेकानेक कष्ट और प्रातक - विशेष उपस्थित होने पर साधु को धर्म एव देह रक्षा के लिए शरीर त्याग करने को भी वाध्य होना
पड़ता था ।