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जैन धर्म जामाली और गोगालक की परम्परा ने महावीर स्वामी की श्रमण परम्परा से ही पाठ पढा था।
सचमुच, महावीर की श्रमण-संस्था अपेक्षाकृत बहुत सुव्यवस्थित और समुन्नत थी । आज भी महावीर के साधुअो के प्राचार-संयम तथा तप की धूम वैज्ञानिक विश्व आश्चर्य से देख रहा है कि जैन साधु किस प्रकार इतना त्याग कर लेते है, और अपने जीवन का कल्याण करने में सफल होते है । भारतवर्ष में आज भी जैन साधुओ को जितना विश्वास तथा आदर दिया गया है, वह सब महावीर की समुचित व्यवस्था का ही वरदान है ।
तत्कालीन सकट और-साधु-सस्था -जैन साधु परम पर्यटक होता है। इसका घर वार परिवार उसके कन्धो पर रहता है। ग्राम, पिडोलक और नगर पिंडोलक साधुओ को भगवान् ने पापी श्रमण तक कह दिया क्योकि एक जगह अधिक देर निवास करना ही सयम शिथिलता का कारण बन जाता है।
जैन श्रमण पाट विहारी है वह दूसरे के सहारे के आधीन नहीं है । उसे तो अपने ही पैरो से समूची-भूमि, विकट अटवी तथा भयानक वनान्तर नापने पड़ते है । इसलिए शास्त्रो मे साधु सस्था पर आए हुए घोरतम संकटो का विस्तृत वर्णन किया गया है। साथ ही, उस अपवाद-मार्ग का भी निर्देश किया गया है जिसे साधु समय-समय पर उचित विधान के अनुसार अवलम्बन रूप में अपना सके । साधु-साध्वी के सामने मुख्य समस्या चोर-डाकुओ का उपद्रव, नदी पार करने के लिए वाहन का उपयोग, बीमारी, सर्प-विच्छु का विषैला उपद्रव मिटाने के लिए औषधोपचार, सकटकालीन स्थिति में राजसस्था मे जैन साधुनो का हस्तक्षेप, विधर्मी राजा द्वारा उठाये गये उपद्रव का निराकरण, दुर्भिक्ष के समय भिक्षा की समस्या का समाधान, धार्मिक संकट का प्रतिकार, संघ विपत्ति का निवारण आदि समस्त समस्याओं का समाधान-भगवान् महावीर ने विवेक पूर्ण आचरण करने के लिए अपवाद मार्गों का उल्लेख किया है।
प्राचीन काल मे श्रमण-संस्था का कष्ट सहन
समय की बहुत विचित्र गति है। अतएव, साधु-साध्वियो के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की मर्यादा वाव दी है। जिससे समय पड़ने पर साधु समाज सब के साथ अनुमति कर विशेष विधान भी बना सकता है, ऐसा अधिकार भगवान् महावीर ने सघ को दिया है।