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अतीत की झलक ऐतिहासिक भागों मे यदि सचोट तर्क द्वारा इस सस्कृति के आदान-प्रदान का यथार्य वर्णन किया जाये तो हमे कहना होगा कि साधु सस्था का विधान जैन और बौद्ध धर्म के सिवाय अन्यत्र कही उपलब्ध नहीं है, वैदिक धर्म में साधु धर्म का विधान केवल जैन आचार गास्त्र का वैदिक छायानुवाद मात्र है । जैन तथा दौद्ध सम्प्रदाय में गृहस्थकर्मों का सासारिक विधान वैदिक विधान का भावानुवाद मान है।
जैन, बौद्ध तथा वैदिक ये तीनो विचारवाराएं समुचित रूप मे ही वास्तनिक अनेकान्त की अजस्रप्रवाहिनी अमर धाराए है। इनके सगम से भारतीयसस्कृति का सूर्य चमका है।
यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि ये तीनों धाराए एक दूसरे से प्रामाणिक एवं अनुप्राणित है। तीनो ने जी भर कर एक दूसरे से अपने पोषण तत्वो को प्राप्त किया है। कम से कम, निवृत्ति त्याग तथा साधु सस्था का नियमित रूप वैदिकों को जैन धर्म की देन है । अहिंसा की प्रतिष्ठा तथा वैष्णवो की आहार शुद्धि और आत्मा तथा परमात्मा की एकरूपता तो वैदिक धारा को जैन धर्म की ही विरासत है।
भगवान महावीर ने अहिंसा के अतिरिक्त सर्वप्रथम, भाव-यज की स्थापना की, जिससे देश के पवित्रतम ब्राह्मणो की हिसाप्रधान यज्ञवृत्ति से रुचि हट गई।
इसी समय, राक्षसी वृत्ति को छोड़कर राजानो ने श्रावक धर्म स्वीकार किया । वैदिक गृहस्थो और ब्राह्मणो पर महावीर की अहिसा की इतनी छाप पडी कि आज सैकडो वर्षों से याज्ञिक हिसा देश से लोप हो गई।
सन्यासियो, त्रिदण्डियो और योगियो का अधिकाधिक ध्यान अहिसा तथा महावीर प्रणीत श्रमण-याचार-शास्त्र पर गया। जिसके फलस्वरूप अध्ययन अथवा श्रवण द्वारा उन्होने अपने सम्प्रदायो मे वे नियम लाग किए। त्रिदण्डी सन्यासियो की क्रिया पर जैनधर्म की श्रमण-परम्परा का पूरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
अन्य धर्मों पर श्रमण-परम्परा की छाप बुद्ध और महावीर के साधुप्रो मे सैद्धान्तिक आचार-सम्बन्धी मान्यताए तो कितनी ही एक जैसी दीखती है।