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चारित्र और नीतिशास्त्र परिचायक है । कुछ लोग समझते है कि जैनधर्म निवृत्तिमय धर्म, और त्यागियोवैरागियो के ही काम की ही चीज है, किन्तु उनका यह भ्रम जैनो की संघ व्यवस्था का विचार करने से ही हट सकता है।
श्रावक पद का अधिकार-जैनधर्म मे जैसे मुनियो के लिए आवश्यक प्राचार प्रणालिका निर्दिष्ट की गई है, और उस आचार का पालन करने वाला साधक हो मुनि कहलाता है, उसी प्रकार श्रावक होने के लिए भी कुछ आवश्यक शर्त है । प्रत्येक गृहस्थ श्रावक नही कहला सकता, बल्कि विशिष्ट व्रतो को अगीकार करने वाला गृहस्थ ही श्रावक कहलाने का अधिकारी है।
जैन परम्परा के अनुसार श्रावक बनने की योग्यता प्राप्त करने के लिए सात दुर्लसनो का त्याग करना आवश्यक है-वे दुर्व्यसन ये है
१ जुआ खेलना, २. मासाहार, ३ मदिरापान, ४ वेश्यागमन, ५ गिकार, ६ चोरी और ७. परस्त्रीगमन ।
यह सातो ही कुव्यसन जीवन को अध पतन की ओर ले जाते है । इनमे से किसी भी एक व्यसन में फंसा हुआ अभागा मनुष्य, प्रायः सभी व्यसनो का शिकार बन जाता है।
इन सात कुव्यसनो मे से नियमपूर्वक किसी भी व्यसन का सेवन न करने वाला ही श्रावक बनने का पात्र होता है।
श्रावक बनने के लिए--इन सात दुर्व्यसनो के त्याग के अतिरिक्त गृहस्थ में अन्य गुण भी होने चाहिएं । जैन परिभाषा मे उन्हे मार्गानुसारी के गुण कहते है । क्योकि जिन मार्ग का अनुसरण करने के लिए इन गुणो का होना आवश्यक है । उनमे कुछ ये है
नीतिपूर्वक धनोपार्जन करे, शिप्टाचार का प्रशसक हो, गुणवान् पुरुषो का आदर करे, मधुरभापी हो, लज्जाशील हो, गीलवान् हो, माता-पिता का भक्त एवं सेवक हो, धर्मविरुद्ध, देशविरुद्ध, एवं कुलविरुद्ध, कार्य न करने वाला, पाय से अधिक व्यय न करनेवाला, प्रतिदिन धर्मोपदेश सुनने वाला, नियत समय पर परिमित सात्विक भोजन करने वाला, परस्पर विरोध-रहित धर्म अर्थ एव काम रूप त्रिवर्ग का सेवन करने वाला, अतिथि, दोन-हीन जनो एव साधु-सन्तो का सत्कार करने वाला। गुणो का पक्षपाती, अपने आश्रित जनो का पालन-पोषण करनेवाला, आगा-पीछा मोचने वाला, सौम्य, परोपकार-परायण, काम-क्रोध आदि