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जैन धर्म
कहलाता है। ममत्व, मूर्छा या लोलुपता ही वास्तव म परिग्रह है । " उमी से संसार के अधिकाश दुख उत्पन्न होते है । भौतिक पदार्थों पर आसक्ति रखने से विवेक नष्ट हो जाता है । आत्मा अपने स्वरूप से विमुख होकर और राग-द्वेप के वीभूत होकर अनेक दोषो का सेवन करता हुग्रा लक्ष्य भ्रप्ट हो जाता है ।
यह पाच महान् दोप हैं, जिनसे ससार के समस्त दोपों की उत्पत्ति होती है । इतिहास साक्षी है कि इन्ही टोपो के कारण मनुष्य अपना और ससार का अहित करता आया है । मगर दोषो का शमन हो जाए तो गान्ति और स्थायी एव सच्चे सुख की प्राप्ति में विलम्ब न लगे । आत्मा को इन दोपो से मुक्त करना ही जैनधर्म की साधना का मुख्य लक्ष्य है । जब यह सावना अपनी पूर्णता पर पहुच जाती है, तव श्रात्मा, परमात्मा पढ का अधिकारी बन जाता है ।
पात्रों की योग्यता एव क्षमता का विचार करके जैनधर्म मे यह सावना दो भागो में वांट दी गई है, जिसे हम पहले अगारधर्म (गृहस्थ धर्म) और दूसरा धनगर ( साधु- धर्म) के नाम से कह चुके है । "
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गृहस्थधर्म की पूर्व भूमिका
संघ का विभाजन - भगवान् महावीर ते जब धर्मशासन की स्थापना की तो स्वाभाविक ही था कि उसे स्थायी और व्यापक रूप देने के लिए वे संघ की भी स्थापना करते । क्योकि संघ के विना धर्म ठहर नही सकता |
जैन सघ चार श्रेणियों में विभक्त है ।
१. साबु, २. साध्वी, ३. श्रावक, ४. श्राविका ।
इनमें साधु र साध्वी का श्राचार लगभग एक-सा और श्रावक-श्राविका का ग्राचार एक-सा है ।
जैन सब में श्रावक और श्राविका का महत्त्वपूर्ण स्थान है | श्रावक का श्राचार मुनि धर्म के लिए नीव के समान है । उसी के ऊपर मुनि के आचार का भव्य प्रासाद निर्मित हुआ है ।
धर्म संघ की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण वात थी और उसमे भी गृहस्थो
को समुचित स्थान मिलना, श्रमण भगवान् की विशालता और उदारता का
१. दार्वकालिक, अ० ६, गाया २१ ।
२ ठाणांग सूत्र, स्था० २, उ० १ ।