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जैन धर्म
मर्यादाओ का पालन करे तो संसार स्वर्ग बन सकता है, और प्रत्येक प्राणी के साथ बन्धुभाव स्थापित होने से पूर्व शान्ति का वायुमण्डन निर्मित हो सकता है ।
श्रावक के तीन प्रकार
व्रतों का प्रणु प्राशिक रूप से पालन करना कहलाता है। किन्तु प्रत्येक गृहस्य की गुरूप साधना भी समान कोटि की नहीं हो सकती । आमिर अपनी क्षमता के अनुसार ही गृहस्थ इन व्रतो का पालन करनाता है, अतएव उसकी साधना में अनेक कोटिया हो जाना स्वाभाविक है । उन कोटि भेद के श्रावार पर श्रावक तीन प्रकार के होते है
१. पाक्षिक, २ नैष्ठिक ३. साधक ।
जो एक देश से ( अंशत ) हिंसा का त्याग करके श्रावक धर्म ग्रगीकार करता है, वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। जब वह निर्दोष निरतिचार रूप से व्रत का पालन करने लगता है, तब नैष्ठिक कहलाता है । वही श्रावक जब पूर्ण रूप से देशचारित्र का पालन करता है और श्रात्मा की स्वरूपपरिस्थिति में लीन हो जाता है, तव सावक श्रावक कहलाता है ।
जीवन-नीति
श्रावक और साधु दोनो ही मुमुक्षु होते है । दोनो आत्माशुद्धि के पथ के पथिक होते है । दोनो का उद्देश्य मुक्तिलाभ करना है। दोनो सयम की साधना में निरत रहते है और पाप से बचने का प्रयत्न करते है । फिर भी दोनो की परिस्थितियो मे अन्तर है । साबु सर्वथा अपरिग्रही और अनारभी समस्त पापकृत्यो के त्यागी होते हैं, किन्तु श्रावक गृहस्थ अवस्था में रहने के कारण ऐसा नही हो सकता । क्योकि उसका परिग्रह और आरम्भ अमर्यादित नही होता ।
जैनशास्त्रो मे महापरिग्रह और उसके लिए किया जाने वाला महारभ नरक गति का कारण बतलाया गया है । अतएव श्रावक की जीवन नीति ऐसी सरल और सादी होनी चाहिए कि वह ग्रत्पारभी और अल्पपरिग्रही रहकर ही अपना और अपने परिवार का निर्वाह कर ले | श्रावक का दर्जा पाने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है ।
श्रावक परिग्रह की एक मर्यादा वाघ लेता है, जिससे वह तृष्णा पर अकुश लगा सके । उस मर्यादा को निभाने के लिए वह भोगोपभोग की वस्तुओ