________________
१०८
जैन धर्म २. नास्ति-(नही है) ३. अस्तिनास्ति-(है, नही है) ४. अवक्तव्य-(नही कहा जा सकता) ५ अस्ति अवक्तव्य-(है, नही कहा जा सकता) ६. नास्ति अवक्तव्य-(-नही है, नही कहा जा सकता) ७. अस्ति, नास्ति अवक्तव्य-(-नही है, अवक्तव्य है)
१. स्यादस्ति --प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, अपने क्षेत्र, अपने काल, और अपने भाव से है।
२. स्यान्नास्ति-प्रत्येक वस्तु पर द्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से नहीं है।
इन दोनो भगो का आशय यह है कि घट (और समस्त पदार्थ) है तो, अवश्य, परन्तु वह घट मिट्टी द्रव्य की अपेक्षा से है, जिस जगह है उसी जगह है, जिस काल मे है, उसी काल की अपेक्षा से है और अपने स्वरूप से है । वह घट परद्रव्य से नही है' अर्थात् वह सुवर्ण द्रव्य की अपेक्षा नहीं है—सोने का नही है, जहा है उसके सिवाय दूसरी जगह नही है, जिस काल मे है, उससे भिन्न काल में नही है, और जिस रूप में है, उससे भिन्न रूप मे नही है।
यह दो भग ही अगले पाचो भगो के आधार है। इन्ही के सम्मिश्रण से उनका निर्माण हुआ है।
३ स्यात्, अस्तिनास्ति ---इस भग के द्वारा वस्तु का उभयमुखी कथन किया जाता है, अर्थात् यह प्रकट किया जाता है कि वस्तु क्या है, और क्या नही है ? प्रथम भग केवल अस्तित्व का और दूसरा भग केवल नास्तित्व का विवान करता है, जब कि यह भग दोनो का विधान करता है।
४ स्यात्, अवक्तव्य --प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक होने से सदा अवक्तव्य है । उसका परिपूर्ण स्वरूप किसी भी गव्द द्वारा व्यक्त नही किया जा सकता। किसी शब्द मे सामर्थ्य नही जो अनन्त धर्मो का कथन कर सके।
१ अप्पणो आदिठे आया, परस्स आदिठे णो आया । भगवती,
श० १२, उ० १०, पा० १०॥