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________________ जैन धर्म का स्वरूप एक शान्ता है। अहिंसा साध्य और संयम साधन है। संयम के अनुष्ठान से ही अहिंसा की साधना सम्भव होती है। जिसने अपनी इन्द्रियो को उच्छृखल छोड़ दिया है मन को बेलगाम कर रखा है और जो प्राणियो के प्रति सहानुभूतिशील नहीं है, वह असंयमी अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। संयम दो प्रकार का है-इन्द्रिय-संयम और प्राणी-संयम । इन्द्रियो और मन को अपने-अपने विषयो मे प्रवृत्ति करने से रोक कर आत्मोन्मुख करना इन्द्रियसंयम है और षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग करना प्राणी-सयम है। शास्त्रो में सत्तरह प्रकार का जो संयम प्रतिपादित किया गया है, उसका सार इसी मे आ जाता है ।। ___संयम के पश्चात धर्म का तृतीय रूप प्रकट किया गया है । इसका कारण यह है कि संयम की साधना के लिए तपस्या अनिवार्य है। तपस्या का अर्थ इच्छानिरोध है । मनुष्य की इच्छाये अपार, असीम, और अनन्त है । उनकी लालसा पूरी करने के लिए आप दौडेगे तो दौड़ते ही चलेगे। किन्तु वह तृष्णा पूरी नही हो सकती और आपकी दौड़धूप समाप्त हो नहीं सकती। इच्छापूर्ति के लिए आपको असयम के पाप-पथ पर चलना अनिवार्य होगा और वहाँ हिंसा-दानवी आपको अपना लक्ष्य बना लेगी। काँटो से बचने के लिए आप सम्पूर्ण भूमडल को चमड़े से मढ नहीं सकते। बुद्धिमान् मनुष्य अपने पैरो में ही जूता पहन लेता है। इसी प्रकार इच्छाप्रो की पूर्ति करना असंभव है, अतएव इच्छाओ पर नियत्रण कर लेना ही आपके लिए एकमात्र सुखप्रद मार्ग है। यही तप का मार्ग है। तपोनुष्ठान से मनुष्य संयमशील बनता है और सयमशीलता से अहिसा की प्रतिष्ठा होती है । जिस व्यक्ति के अन्तरतर मे अहिसा, सयम और तप की त्रिवेणी निरन्तर बहती रहती है, उसकी आत्मा इतनी निर्मल, निष्कलुष और निर्विकार हो जाती है कि देवता भी उसके चरणो में प्रणाम करके अपने को धन्य मानते है । ____एक जैनाचार्य ने जैनधर्म का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए बतलाया है .--- "जहाँ अनेकान्त दृष्टि से तत्त्व की मीमांसा की गई है, अर्थात् प्रत्येक वस्तु के अनेक पहलुप्रो का विचार करके सम्पूर्ण सत्य की अन्वेषणा की गई है, खण्डित सत्यांशों को अखंड स्वरूप प्रदान किया गया है, जहाँ किसी प्रकार के पक्षपात को अवकाश नहीं है, अर्थात् शुद्ध सत्य का ही अनुसरण किया जाता है और जहाँ किसी भी प्राणी को पीडा पहुचाना पाप माना जाता है, वही जैनधर्म है।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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