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जैन धर्म
है। चारित्र-रूप-धर्म की व्याख्या करते हुए भगवान् ने कहा कि - " ग्रहमा सयम और तप ही धर्म का स्वरूप है । वह उत्कृष्ट और मंगल है ।" ग्रहिता के विषय में हमे सावधानी से काम लेना पडेगा क्योकि अहिसा के दो प्रकार है— एक निषेधक और दूसरा विधायक ।
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हिंसा का निषेधक रूप आत्मगत समस्त प्रकार के दोषों का शमन करता है और विधायक रूप मिथ्यात्व से समकित सुव्रत, श्रप्रमाद, श्रकपाय और शुभ योग की ओर प्रेरित करता है। मानव को ग्रशुभ से शुभ की ओर तथा शुभ से शुद्ध (प्रशस्त शुभ ) की ओर ले चलना ही जैनधर्म का उद्देश्य है और ग्रहसा उसकी पूर्ति का साधन है । सब जीव जीना चाहते है, अहिंसा उनको अमरता देती है । प्रश्न व्याकरण-मूत्र में भगवान् ने कहा है : "ग्रहसा समस्त जगत के लिए पथप्रदर्शक दीपक है, डूबते प्राणी को सहारा देने के लिए द्वीप है, त्राण है, शरण है, गति है, प्रतिष्ठा है, यह भगवती अहिंसा भयभीतो के लिए गरण है, पक्षियो के लिए ग्राकाशगमन के समान हितकारिणी है और प्यामो को पानी के समान है। भूखो को भोजन के समान है । समुद्र में जहाज के समान है, रोगियो के लिए औषधि समान है, यही नही; भगवती अहिसा इनसे भी अधिक कल्याणकारिणी है । यह पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, वीज, हरित, जलचर, स्थलचर, नभचर, बस, स्थावर आदि समस्त प्राणियो के लिए मंगलमय है । (प्रश्न व्याकरण प्रथम सवर द्वार) नि. सन्देह अहिंसा ही माता के समान समस्त प्राणियों का सरक्षण करने वाली, पाप और सताप का विनाश करने वाली और जीवनदायिनी है | अहिंसा अमृत है, अमृत का अक्षय कोप है और हिंसा गरल है, गरल का भण्डार है ।"
व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के जीवन मे अहिंसा की मात्रा जितनी - जितनी चढ़ती जायेगी, सुख-शान्ति एव स्थायी कल्याण की मात्रा भी उतनी - उतनी ही वढती जायेगी । इसके विपरीत, ज्यों-ज्यो हिंसा विकराल रूप धारण करेगी, जगत का घोर व्यक्ति का जीवन अशान्त, सतप्त, और व्याकुल दुखी होता जाएगा ।
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प्रश्न होता है -- जीवन मे ग्राहसा की प्रतिष्ठा किस प्रकार की जा सकती इसका उत्तर है --सयम के द्वारा । इसीलिए अहिंसा के पश्चात् धर्म का दूसरा रूप सयम बतलाया गया है।
संयम का अर्थ है इन्द्रियो का और मन का दमन करना अर्थात् उन्हे ग्रात्मवगीभूत करना और हिमाप्रवृत्ति से बचाता । स