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जैन धर्म का स्वरूप
श्रुत का अर्थ ज्ञान और चारित्र का अर्थ सदाचार है । ज्ञान क द्वारा विकास और उद्देश्य को खोज करना, प्राप्ति के मार्ग ढूढना, और चारित्र का अर्थ है--कि उन सम्यग्मार्गों पर चलकर लक्ष्य-सिद्धि प्राप्त करना । खोज के लिए प्रकाश चाहिए वह ज्ञान देता है, और सदाचार हमे निर्वाण देता है। इसी को श्रुत-धर्म के सहायक रूप मे ग्राम-धर्म, नगर-धर्म आदि के दस भेदो' को भी धर्म का रूप दिया गया है। धर्म का वास्तविक उद्देश्य बहिर्मुखता से झे अन्तर्मुखी बनाना है । हमारा सर्वस्व शरीर नही, यात्मा है । शरीर का सुख काम्य सुख है, किन्तु हमारा अपना सुख काम्य सुख नही हो सकता क्योकि वह नागशील है । इसीलिए जगत के वे तमाम धर्म जो हमे बलि के द्वारा अथवा यज्ञ के द्वारा स्वर्गीय सुखो का आश्वासन वधाते है, वे आध्यात्मिक मानन्द के परमोद्देश्य को प्राप्त करने वाले साधको के लिए ग्राह्य नहीं है। उनको तो आत्मा का आनन्द चाहिए। आनन्द और सुख मे यही सबसे वडा अन्तर है कि सुख ऐन्द्रिय होता है और आनन्द आध्यात्मिक ।
आध्यात्मिक आनन्द नित्य, शाश्वत और 'ध्रुव' है। आनन्द की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा स्वभाव-विपरीतता और विभावो की प्रधानता है । भगवान् महावीर ने फर्माया है कि "अजान से मिथ्यात्व और मिथ्यात्व से अव्रत और अव्रत से प्रमाद एव प्रमाद से कषाय य सब विभाव ह, इन विभावो ने ही आत्मा के असीम आनन्द और अनन्त ज्ञान को दबोच लिया है।"
जब तक आत्मा अपने स्वरूप को पा नही लेती तब तक उसे जगत की विफलता को अनुभव करना ही पडेगा, भव-भ्रमण की व्याधि मे ग्रस्त होना ही पडेगा ।"
श्रमण महावीर कहते है-"वत्थुसहावो-धम्मो” वस्तु का स्वभाव ही धर्म है, अर्थात् प्रात्मा के नैसर्गिक स्वरूप को पा लेना ही धर्म है, धर्म आत्मा का सगीत है। चैतन्य के ऊर्ध्वगमन की वृत्ति ही धर्म की जननी है। धर्म का वर्णन वाणी से नही अपितु अनुभव से ही हो सकता है, प्रात्मा की विवेक और चैतन्य शक्ति ने ही दूसरे प्राकृतिक पदार्थो से भिन्न अमरता की ओर प्रेरित किया है। कर्तव्य और आदर्श की व्याख्याएँ दी है, दुख निवृत्ति और निर्वाण प्राप्ति ही हमारे धर्म की लक्ष्यसिद्धि है । आत्मा को कर्माणुगो की धूल ने ढक दिया है। इन कर्मों के बन्धनो को पहिचानो और तोड दो। बन्धनो को पहिचानने के लिए जान की, और बन्वनो को तोडने के लिए चारित्र की आवश्यकता
१. स्थानांग स्थान, १०