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न चित्ता तायए भासा कुओ विज्जाणु सासणं । विसण्ण पाव कम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो ॥
--उत्तराध्ययन, अ० ६, गा० ११ । पहावंतं निगिण्हामि सुयरस्सी समाहियं । न मे गच्छई उम्मग्गं मग्गं च पडिवज्जई ॥
-~~-उत्तराध्ययन, अ० २, गा० ५६ ।। हे साधक !
नाना प्रकार की भाषाम्रो का विज्ञान जीव को दुर्गत में पड़ने से नहीं रोक सकता। जो पाप कर्मो मे निमग्न हैं और अपने को पण्डित मानते है ऐसे मूर्ख मनुष्यो को भला विद्याओं का शिक्षण कहाँ तक सरक्षण दे सकेगा?
हे साधक | सद्ज्ञान वह है जो भागते हुए मन रूपी घोड़े को ज्ञान रूपी लगाम द्वारा अच्छी प्रकार नियत्रित कर ले, इससे साधक तेरा अश्व उन्मार्ग मे नही जा सकेगा, और ठीक मार्ग को ग्रहण कर सकेगा।
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सम्यग्ज्ञान