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जैन धर्म
जैनशास्त्रो मे इन तीन प्रकार की आत्मानो की भी चादह भूमिकाएँ वतलाई गई हैं, जिन्हे गुणस्थान कहते है । पहली ने तीमरी भूमिका तक का जीव वहिरात्मा कहलाता है। सामान्यतया चौयी से बारहवी भूमिका वाला, अन्तरात्मा कहलाता है और तेरहवी तथा चौदह्वी वाला परमात्मा।
____गुणस्थान जैनधर्म को मौलिक देन है । चौदह गुणस्थान में प्रात्मा की समस्त विकास-ह्रास की अवस्थाओ के चित्र दिखलाये गए हैं। इनमे समार की सब आत्मानो का समावेश हो जाता है। किसी भी प्रात्मा की कोई भी अवस्था क्यो न हो, उसका अन्तर्भाव किसी-न-किसी गुणस्थान मे हो ही जाता है ।
यहाँ गुण का अर्थ है-'पात्मा की विशेषता' । आत्मा की विशेपताएँ पाँच प्रकार की है, जिन्हे जीव का भाव भी कहते है।
१. कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाला भाव 'औदयिक', २. कर्म के भय से उत्पन्न होने वाला भाव क्षायिक', ३. कपाय के गमन से उत्पन्न होने वाला भाव 'योपगमिक', ४. क्षयोपशम से होने वाला भाव 'क्षयोपशमिक' तथा
५. जो कर्मों के उदय आदि से उत्पन्न न होकर स्वाभाविक हो, वह 'पारिणामिक' भाव कहलाता है।
यह पाँच प्रकार के जीव के भाव, यहाँ गुण कहे गए है। इन गुणो के स्थानो, अर्थात् भूमिकामो को गुणस्थान समझना चाहिए ।
___ आत्मा के विकास-प्रवाह को कोई विभक्त नही कर सकता, तो भी सुगमता के लिए उसका विभाजन किया गया है। उसी विभाजन के अनुसार चौदह गुणस्थान इस प्रकार है
१. मिथ्यात्त्वगुणस्थान मिथ्यादृष्टि। २. सास्वादन गुणस्थान - मासादनसम्यग्दृष्टि । ३ मिश्रगुणस्थान
मम्यग-मिथ्यादृष्टि ४. अविरतसम्यग्दृष्टि
असयत सम्यग्दृष्टि । ५. देशविरति
मयतासंयत। ६. सर्वविरति गुणस्थान प्रमतसयत । ७. अप्रमत गुणस्थान
अप्रमतसयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान - १०. सूक्ष्मसम्पराय
दरसाम्पराय ।