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जैन धर्म
३६. जडी-बूटी आदि काम में लाना। ३७. सचित्त फल खाना। ३८. वीजों का भक्षण करना। ३९-४५
सौचल नमक, सैधा नमक, सामान्य नमक, रोमदेशीय नमक, समुद्री नमक, पाखुखार नमक काम
मे लेना। ४६. धूपन - शरीर या वस्त्र आदि को धूप देना। ४७. वमन
निष्कारण मुह मे उंगली डाल कर या औषध लेकर
वमन करना। ४८-४६. वस्तीकर्म - गुदामार्ग से कोई वस्तु पेट मे डालकर दस्त करना
तथा जुलाब लेना। ५०. अजन
काजल या सुरमा लगाना। ५१. दन्तवर्ण
दांत रगना। ५२.
शारीरिक बलवृद्धि के लिए कुश्ती आदि व्यायाम
करना। जैन साधु के लिए इन अनाचीर्णो का त्याग करना आवश्यक है।
बारह भावनाएँ मनुष्य के बाह्य व्यवहार उसके मनोभावो के मूर्तरूप होते है । अतएच साधना को सजीव बनाने के लिए मन को साधने की अनिवार्य आवश्यकता है। मन को साधने तथा श्रद्धा और विरक्ति की स्थिरता और वृद्धि के लिए जैन शास्त्रों मे अनुप्रेक्षापो का विधान है। पुन. पुन. चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। इसके बारह प्रकार है -
१ अनित्य भावना-जगत् का प्रत्येक पदार्थ नाशशील है, अनित्य है, वन, वैभव, सत्ता परिवार आदि सव क्षण भगुर है। लक्ष्मी सध्याकालीन लालिमा की भाति अनित्य है । जीवन जल के बुलबुले के समान है, और यौवन वादल की छाया के समान है । इनके नष्ट होने मे विलम्ब नही लगता । इन अनित्य पदार्थो के लिए नित्य अानन्द से वचित होना बुद्धिमत्ता नही है ।
२. अशरण भावना--विकराल मृत्यु के पजे मे से कोई किसी को बचा नहीं सकता। अन्तिम समय मे विशाल मैन्य, बल, धन के भण्डार और वृहद परिवार कुछ काम नहीं आता। अतएव किसी पर भरोसा करना नादानी है।