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चारित्र और नीतिशास्त्र
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३ संसार भावना इस भावना मे ससार के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन किया जाता है । यथा ससार मे क्या राजा, क्या रक, कोई सुखी नही है । प्रत्येक को किसी न किसी प्रकार का दुख सता रहा है। सभी समारी जीव जन्म-मरण के चक्कर मे पडे है । आज जो ग्रात्मीय है, अगले जीवन मे वही पराया वन जाता है । पराया अपना हो जाता है । अतएव ग्रपने पराये का भेदभाव कल्पना पर निर्भर है । न कोई अपना है, न पराया है ।
४. एकत्व भावना--- जीव अकेला ही जन्मता, मरता और सुख-दुख भोगता है । परलोक की महायात्रा के समय कोई किसी का साथ नही देता ।
५. अन्यत्व भावना - - जगत् के समस्त पदार्थो से ग्रात्मा को भिन्न मानना और उस भिन्नता का बार-बार चिन्तन करना, अन्यत्वभावना है ।
६. अशुचिभावना -- शरीर सम्बन्धी मोह को नष्ट करने के लिए शरीर की शुचिता पावनता का पुनः पुन चिन्तन करना वैराग्यवृद्धि के लिए अत्यन्त उपयोगी होता है ।
७. आस्रव भावना - दुखो के कारणों पर विचार करना ग्रस्रवभावना है । दुखो का कारण कर्मबन्ध है । कर्मों का बन्ध किन किन कारणो से होता है ? राग, द्वेष, अज्ञान, मोह, हिसा, असत्य, असन्तोष, प्रमाद, कषाय आदि किस प्रकार आत्मा को कर्मों से लिप्त कर देते है ? इत्यादि चिन्तन ग्रासव भावना है ।
८. संवर भावना - दुखो के एव कर्मवन्ध के कारणो का किस प्रकार निरोध किया जा सकता है । यह चिन्तन करना सवरभावना है ।
९. निर्जरा भावना- जो कर्म पहले बन्ध चुके हैं, उन्हें किस प्रकार नष्ट किया जा सकता है, इस प्रकार का चिन्तन करना निर्जरा भावना है।
१०. लोकभावना -- नोक के पुरुषाकार स्वरूप का चिन्तन करना, लोकभावना है ।
११. वोधिदुर्लभ भावना - जिससे आत्मा का उत्थान होता है, जिनमे सार प्रसार का विवेक प्राप्त होता है और जिसके प्रभाव से ग्रात्मा मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ बनता है, वह ज्ञान बोधि कहलाता है । उसकी दुर्लभता का विचार करना बोधिदुर्लभ भावना है ।
१२ धर्मभावना -- धर्म के स्वरूप का और उसकी महिमा का चिन्तन करना धर्मभावना है ।