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जैन धर्म
करने के लिए दिग्वत का विधान किया गया है । इस व्रत का धारक श्रावक समस्त दिनायो में गमनागमन की मर्यादा करता है, और उसमे वाहर सव प्रकार के व्यापारो का त्याग कर देता है ।
२. उपभोग-परिभोग परिमाण--एक बार भोगने योग्य आहार आदि उपभोग कहलाते है। जिन्हें पुन. पुनः भोगा जा सके, ऐसे वस्त्रपात्र, आदि को परिभोग कहते है। इन पदार्थों को काम में लाने की मर्यादा वाव लेना उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत है । यह व्रत भोजन और कर्म (व्यवसाय) से दो भागो में विभक्त किया गया है । भोजन पदार्थो की मर्यादा करने से लोलुपता पर विजय प्राप्त होती है। व्यापार सम्बन्धी मर्यादा कर लेने से पापपूर्ण व्यापारो का त्याग हो जाता है।
३. अनर्थ दण्ड त्याग-विना प्रयोजन हिसा करना अनर्थदण्ड कहलाता है। विवेकशून्य मनुष्यों की मनोवृत्ति चार प्रकार से व्यर्थ ही पाप का उपार्जन करती है१. अपध्यान
दूसरो का बुरा विचारना। २. प्रमादाचरित जाति - कुल आदि का मद करना तथा विकथा, निन्दा
आदि करना। ३ हिसाप्रदान
हिसा के साधन-तलवार, वन्दूक, वम आदि का निर्माण करके दूसरो को देना, सहारक शस्त्रो
का आविष्कार करना। ४ पापोपदेश - पाप-जनक कार्यों का उपदेश देना।
इस व्रत को अंगीकार करने वाला साधक कामवासना वर्द्धक वार्तालाप नही करता, कामोत्तेजक कुचेष्टाए नहीं करता। असभ्य-फूहड वचनो का प्रयोग नहीं करता, हिंसाजनक शस्त्रो के आविष्कार, निर्माण या विक्रय मे भाग नहीं लेता, और भोगोपभोग के योग्य पदार्थो मे अधिक आसक्त नही होता।
४ सामायिकवत--२ मन की राग-द्वेषमय परिणति विषमभाव है। इस विपमभाव को दूर करके जगत् के समस्त पदार्थों मे तटस्थभाव समभाव स्थापित करना ही जैन साधना का उद्देश्य है । क्योकि समभाव के अभाव म मच्ची शान्ति का लाभ नही हो सकता। इसी कारण आईती साधना चरम उद्देश्य समता को केन्द्र मानकर मुक्ति की ओर गया है।
१. उपासक दशांग अ०१। २. उपासक दशांग अ०१।