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मुक्ति मार्ग
तत्त्व-चर्चा _ पिछले प्रकरण मे द्रव्यो के सम्बन्ध मे जो कुछ कहा जा चुका है, वस्तुत' उसी मे तत्त्व-चर्चा का समावेश हो जाता है, क्योकि जैसे मूलद्रव्य जीव और अजीव दो है, उसी प्रकार मूल तत्त्व भी यही दो है। फिर भी जनशास्त्रो मे द्रव्यो मे पृथक् तत्त्व का जो निरूपण किया गया है, उसका विशिष्ट प्रयोजन है।
द्रव्यनिरूपण सृष्टि का यथार्थ बोध प्राप्त करने के लिए है, जबकि तत्त्वविवेचन की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक है ।
साधक को इस विशाल निश्व की भौगोलिक स्थिति का और उसके अगभूत पदार्थों का ज्ञान न हो, तो भी वह तत्त्वज्ञान के सहारे मुक्तिसाधना के पथ पर अग्रसर हो सकता है, किन्तु तत्त्वज्ञान के अभाव में कोरे द्रव्य ज्ञान से मुक्तिलाभ होना नभव नही है। हेय, उपादेय और ज्ञेय का विवेकतत्त्व विवेचन से ही संभव है । निन्गठ नायपुत्त महावीर का यह अमर घोष था कि साधक जव तक स्वरूप को पहचानने की क्षमता नहीं प्राप्त कर लेता, वह मुक्ति के पथ पर अग्रसर नही हो सकता ।
जैनधर्म ज्ञान के दो भेद कर देता है--प्रयोजनभूत ज्ञान, और अप्रयोजनभूत ज्ञान । मुमुक्षु के लिए प्रात्मज्ञान ही 'प्रयोजनभूत ज्ञान' है, उसे अपनी मुक्ति के लिए यह जानना अनिवार्य नही, कि जगत् कितना विशाल है,
और इसके उपादान क्या है ? उसे तो यही जानना चाहिए कि आत्मा क्या है। सव आत्माएँ तत्त्वत समान है, तो उनमे वैषम्य क्यो दृष्टिगोचर होता है ? यदि बाह्य उपाधि के कारण वैषम्य आया है, तो वह उपाधि क्या है ? किस प्रकार उसका आत्मा से सम्वन्ध होता है ? कैसे वह आत्मा को प्रभावित करती है ? कैसे उससे छुटकारा मिल सकता है ? छुटकारा मिलने के पश्चात् आत्मा किस स्थिति में रहती है ? इन्ही प्रश्नो के समाधान के लिए जैनागमो मे तत्त्व का निरूपण किया गया है।
सक्षेप मे यह कि द्रव्यनिरूपण का उद्देश्य दार्शनिक एव लौकिक है, और तत्त्वनिरूपण का उद्देश्य आध्यात्मिक है ।
तत्त्व नौ' है --१ जीव २ अजीव ३ पुण्य ४ पाप ५. प्रास्रव ६. सवर ७ निर्जरा ८. वध ६. मोक्ष ।
यह जैन धर्म का प्राध्यात्मिक मन्थन तथा विकास के साधक और
१ स्थानाग, स्था० ९, सूत्र, ६६५; उत्तराध्ययन सूत्र भ० २८, गा० १४ ।