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जैन धर्म रोक देता है और राजा के दर्शन मे बाधक होता है, उसी प्रकार जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण का वाधक हो, वह दर्शनावरण कहलाता है।
जान से पहले होने वाला वस्तु का निर्विशेष बोध, जिसमे सत्ता के अतिरिक्त किसी विशेष धर्म की प्राप्ति नहीं होती, दर्शन कहलाता है । दर्शनावरण कर्म से आवृत करता है । यह नौ प्रकार का है '---
१. चक्षुदर्शनावरण-नेत्रशक्ति को अवरुद्ध करमे वाला। २ अचक्षुदर्शनावरण-नेत्र के अतिरिक्त शेष इन्द्रियो की सामान्य अनु
भवशक्ति का अवरोध करने वाला। ३. अवधिदर्शनावरण-सीमित अतीन्द्रिय दर्शन को रोकने वाला । ४ केवलदर्शनावरण-परिपूर्ण दर्शन को आवृत करने वाला । ५. निद्रा-सामान्य नीद। ६. निद्रा-निद्रा गहरी नीद। ७. प्रचला-बैठे-बैठे आ जाने वाली निद्रा। ८. प्रचलाप्रचला-चलते-फिरते भी आ जाने वाली निद्रा।
६ स्त्यानगृद्धि-जिस निद्रा मे प्राणी वडे-बडे वलसाध्य कार्य कर डालता है, जागृतिदशा की अपेक्षा अनेक गुणा अधिक बलवान् हो जाता है ।
यह पाच प्रकार की निद्राए, दर्शनावरण कर्म के उदय का फल है ।
३ वेदनीय-तलवार की धार पर लगे शहद के समान सांसारिक सुख की और दुःख की वेदना इसी कारण होती है। इसके दो भेद है-साता-वेदनीय और असातावेदनीय । सुख-रूप सवेदना का कारण सातावेदनीय और दुख रूप सवेदना का कारण असाता-वेदनीय कर्म कहलाता है।
४ मोहनीय-~-मोह एक उन्मादजनक विलक्षण मदिरा है, जो प्राणीमात्र को विवेक विकल बना देता है । यह दो प्रकार का है
दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय:
सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव न होने देना अथवा उसमे विकृति उत्पन्न करना, दर्शनमोहनीय कर्म का काम है। यह तीन प्रकार का है।"
१. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३३, स्थानांग सूत्र, स्थान ९ ९१८। २ उत्तराध्ययन, सूत्र, अ०३३ प्रज्ञापना, सत्र, पद २९, उ०२, सू० २९३ । ३ उत्तराध्ययन, सूत्र, अ० ३३, प्रज्ञापना, सूत्र, पद २९, उ०२, सू० २९३ । ४ उत्तराध्ययन, सूत्र, अ० ३३,प्रज्ञापना, सूत्र, पद २९, उ० २, सू० २९३ ।