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कर्मवाद
१ मिथ्यात्व मोहनीय -सत्य में असत्य एव अतत्त्व मे तत्त्व की
प्रतीति करना। २. सम्यक्-मिथ्यात्व मोहनीय-सत्य और असत्य मे मिश्रित श्रद्धा
रखना। ३ सम्यक्त्व मोहनीय -सम्यग्दर्शन मे अशुद्धता पैदा करने वाला।
चारित्रमोहनीय कर्म भी दो प्रकार का है-कषाय-चारित्रमोहनीय और नौ कपाय चारित्रमोहनीय-क्रोध, मान, माया और लोभ, यह चार कषाय है । इन चारो के भी चार-चार प्रकार है, जिनका वर्णन कपाय प्रकरण में किया जाएगा। इस प्रकार ४४४ = १६ कपायो का जनक कषाय मोहनीयकर्म भी सोलह प्रकार का है।'
कषाय को भडकाने वाली नी मनोवृत्तियाँ है । जिन्हे नौ कषाय कहा गया है। वे ये है :१ हास्य
जिससे हँसी आवे । २. रति
अनुरक्ति-स्नेह राग। ३ अरति
जिससे अरुचि, द्वेष उत्पन्न हो। ४. शोक
जिसके कारण शोक का भाव उत्पन्न हो। ५. भय
जिसके कारण भीति उत्पन्न हो। ६. जुगुप्सा
जिसके कारण घृणा उत्पन्न हो । ७ स्त्रीवेद
जिसके कारण पुरुष से सहवास करने की
इच्छा हो। ८ पुरुषवेद
जिसके कारण स्त्री से सहवास करने की
इच्छा हो। ६ नपुसकवेद - जिसके कारण स्त्री-पुरुष दोनो के सहवास
की कामना उत्पन्न हो। यह सब मिलकर मोहनीय कर्म के अट्ठाईस भेद है । यह कर्म प्राणी की वास्तविक श्रद्धा-विवेक को जागृत नहीं होने देता और साथ ही विविध प्रकार के मनोविकारो को उत्पन्न करके सम्यक् चारित्र को नही पनपने देता। मोहकर्म इतर कर्मों का जनक और वडा प्रवल है।
१ प्रज्ञापना सूत्र, पद २३, तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ८, ९ । २ प्रज्ञापना सूत्र, पद २३ तत्वार्थ सूत्र, अ० २ ।