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अतीत की झलक
बर्द्धमान में एक बड़ी जन्मजात विशेषता थी अलिप्तता - अनासक्ति की । राजप्रासाद में रहते हुए भी श्रोर उत्कृष्ट भोग सामग्री की प्रचुरता होने पर भी वे समस्त भोग पदार्थों में अनासक्त रहते थे । उनकी ग्रन्तरात्मा मे एक असाधारण प्रकाश था, एक दिव्य ज्योति थी, जो उन्हें एक निराला ही पथ प्रदर्शित करती रहती थी ।
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वर्द्धमान, स्वभाव से ही अत्यन्त गम्भीर और सात्विक थे । उनकी देह ग्रनुपम स्वर्ण समगौर वर्ण श्रौर श्रतिशय प्राणवान थी । उनका श्रानन प्रोजस्वी, ललाट और वक्षस्थल विशाल था । सात हाथ ऊचा उनका सम्पूर्ण शरीर असाधारण सौन्दर्य की पुरुषाकार प्रतिमा के समान था । फिर भी उनका मानस वैराग्य रंग से रंगा हुआ था । वे कभी-कभी अतिशय गंभीर प्रतीत होते, मानो ससार के दुःख-दावानल से पार होने की चिन्ता मे हो । इठलाता हुआ योवन भी उन्हें भोगो मे नही फसा सका । उनकी वृत्तिया वस्तुत श्रात्माभिमुखी थी ।
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दिगम्बर-परम्परा के अनुसार वह ग्रविवाहित ही रहे और श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार विवाहित होकर भी वे कभी भोगो मे ग्रासक्त नही हुए ।
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वर्द्धमान के माता-पिता का स्वर्गवास हुग्रा, उस समय उनकी अवस्था २८ वर्ष की थी । विरक्ति के जन्मजात सस्कार सभवतः इस घटना से उभर प्राये श्रीर उन्होने अपने ज्येष्ठ बन्धु नन्दिवर्धन के समक्ष दीक्षित होने का प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया । नन्दिवर्धन माता-पिता के वियोग से व्याकुल थे ही, वर्द्धमान के इस प्रस्ताव से उनकी मनोव्यथा की सीमा न रही । नन्दिवर्धन ने उनसे कहा - ' बन्धु, जले पर नमक मत छिडको । माता पिता के विछोह की कथा ही दुसह लग रही है, तिस पर भी तुम मुझे निराधार छोड़ देने की बात कहते हो । मैं इतनी बडी व्यथा न सह सकूंगा ।'
भगवान् वर्द्धमान श्रतिशय नम्र, सौम्य, विनीत मोर दयालु थे । किसी को पीड़ा उपजाना तो दूर रहा, वे किसी को म्लानमुख भी नही देख सकते थे । नन्दिवर्धन के व्यथा - निवेदन से उन्होने सकल्प मे परिवर्तत तो नही किया मगर दो वर्ष के लिए उसे स्थगित कर दिया । इन को वर्षों मे वे गृहस्थ योगी की भाति रहते रहे ।
आखिर तीस वर्ष की भरी जवानी में उन्होने गृह त्याग किया । वह बुद्ध की भाति, पारिवारिक जनो को सोता छोडकर, रात्रि मे चुपके चुपके से नही निकले, वरन् कुटुम्बियो से अनुमति लेकर त्यागी बने ।