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जैन धम
यही से वर्द्धमान स्वामी का साधक - जीवन आरम्भ होता है । वारह वर्ष, पाचमास और पन्द्रह दिन तक कठोरतर साधना करने के पश्चात् उन्हें केवल - ज्ञान की प्राप्ति हुई ।
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इस लम्बे सावना-काल का विस्तृत वर्णन जैनागमो मे उपलब्ध है । उससे प्रतीत होता है कि वर्द्धमान की साधना अपूर्व और अद्भुत, थी । जव हम उनके तीव्रतम तपश्चरण का वृत्तात पढते हैं तो विस्मय से रोगटे खड़े हो जाते हैं । इस विशाल भूतल पर ग्रमस्य महापुरुष, अवतार कहे जाने वाले विशिष्ट पुरुष तथा तीर्थकर हुए हैं, मगर इतनी कठिन तपस्या करने वाला पुरुष दूसरा नही हुआ । भयानक से भयानक यातनात्रो मे भी उन्होने अपरिमित धैर्य, साहस एवं सहिष्णुता का आदर्श उपस्थित किया । गोपाल, शूलपाणि यक्ष, संगम देव, चण्डकौशिक सर्प, गोशालक और लाढ देश के अनार्य प्रजाजनो द्वारा पहुंचाई गई पीड़ाए भगवान् की अनन्त क्षमता और सहिष्णुता का ज्वलन्त निर्देशन है । रोमाचकारिणी उपीड़ा के समय भगवान् हिमालय की भाति अडिग, अडोल और अकम्प रहे । तपश्चरण में असाधारण वीर्यं प्रकट करने के कारण ही वे “महावीर” के सार्थक नाम से विख्यात हुए ।
आगत कष्टों, परीषहो और पीड़ाओ को दृढतापूर्वक सहर्ष सहन करने वाला पुरुष वीर कहलाता है, परन्तु भगवान् तो श्रात्मशुद्धि के लिए कभी-कभी कष्टो को निमत्रण देकर बुलाते, उनके साथ संघर्ष करते और विजयी बनते थे । इस कारण वह प्रतिवीर और महावीर कहलाये । विशेष वर्णन के लिए देखिए श्राचाराङ्ग, (प्र० द्वि० श्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र, आवश्यक नियुक्ति आवश्यकचूर्णि आदि )
कितनी अद्भुत बात है कि साढे बारह वर्ष के तपस्याकाल मे भगवान् ने छह महीनो जितना लम्बा काल निराहार और निर्जल रहकर बिता दिया । इस १२|| वर्ष के दीर्घकाल मे उन्होने कुल मिलाकर ३४६ दिन भोजन किया और शेष दिनो में उपवास किया । और यह भी कम आश्चर्यजनक नही कि उन्होने एक अपवाद के सिवाय कभी निद्रा भी नही ली । जब नीद आने लगती तो वे थोड़ी देर चंक्रमण करके निद्रा भगा देते और सदैव जागृत रहने का ही प्रयत्न करते रहते थे । इससे ज्ञात होता है कि अभ्यास के द्वारा निद्रा पर मनुष्य विजय प्राप्त कर सकता है।
सर्वोत्कृष्ट साधना के फलस्वरूप भगवान् महावीर को सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक सम्पत्ति उपलब्ध हुई । इससे इन्हें सर्वन और सर्वदर्शी पद प्राप्त हुआ ।