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जैन धर्म
भगवान् पार्श्वनाथ ने लगभग ७० वर्ष तक भारतव्यापी श्रहिया गा प्रचार किया और १०० वर्ष की उम्र में सम्मेद शिखर पर जाकर निर्वाण प्राप्त किया । भारत में हिंसा को विराट् बनाने का श्रेय भ० पार्श्वनाथ का ही है, जिन्होने जगली जातियो को ग्रहिंसक बनाया । कृतज्ञता प्रकाशन के लिए श्रीर उनके पावन उपदेशो की चिररमृति के लिए भारत राष्ट्र ने पर्वतों तक के 'पारस' नाम रख दिये । सम्मेद शिखर का दूसरा नाम "पारसनाथ - हिल" है ।
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प्रसेनजित पर हुए बर्बर ग्राक्रमण के अवसर पर काशी-कीमल राष्ट्रों की ओर से श्राप अकेले ही उसकी सहायता करने गये । उन्होंने एक ही श्रमृतवचन से एक दूसरे के खून के प्यासे राजाओ को शान्त करके मित्र बना दिया था । यह उनके विलक्षण वाक् कीगल का और प्रान्तरिक शुचिता का ज्वलत
प्रमाण था ।
भगवान् महावीर
उस युग के महाराजा तथा गणराज्य के अविपति चेटक की बहिन पी त्रिगला देवी । उनका विवाह ज्ञातृवशीय क्षत्रिय सिद्धार्थ के साथ हुया | जैनशास्त्रो मे महाराज सिद्धार्थ का उल्लेख "सिद्धत्थे खत्तिए" और "सिद्धत्थे राया, " के नाम से हुआ है ।
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यही देवी त्रिशला भगवान् महावीर की माता थी, और सिद्धार्थ भगवान् के पिता थे । ईसा से ५६६ वर्ष, पूर्व ऋतुराज वमन्त जब प्रपने नव यौवन की अगड़ाई ले रहा था, नैसर्गिक सुपमा अपना सिगार कर रही थी, प्रकृति प्रसन्न थी और जन-जन के मानस मे प्रपूर्व उल्लास और ग्राह्लाद उत्पन्न कर रही थी, तब चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान् महावीर ने अपने जन्म से इस पृथ्वी को पावन किया । उनका नाम वर्द्धमान रक्खा गया ।
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उनके बाल्यकाल की अनेक घटनाएं जैन ग्रंथो में उल्लिखित है, जिनसे प्रतीत होता है कि वर्द्धमान "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" की उक्ति के अनुसार बचपन से ही अतीव बुद्धिमान्, विशिष्ट ज्ञानवान्, धीर, वीर श्रीर साहसी थे । उनके माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी थे,
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तएव ग्रहिंसा, दया, करुणा और संयमशीलता के वातावरण मे उनका लालनपालन हुआ ।