________________
सम्यग्ज्ञान
१. अन्नपुण्य भोजन का दान देना। २. पान पुण्य पानी का दान देना। ३. लयनपुण्य निवास के लिए स्थान-दान करना। ४. गयनपुण्य शय्या, सस्तारक-बिछौना आदि देना । ५. वस्त्रपुण्य वस्त्र का दान देना। ६. मन पुण्य मन के शुभ एवं हितकर विचार । ७. वचनपुण्य प्रशस्त वाणी का प्रयोग । . . ८. कायपुण्य शरीर से सेवा प्रादि शुभ प्रवृत्ति करना। . -- ६. नमस्कारपुण्य - गुरुजनो एवं गुणी जनो के समक्ष नम्रभाव --
धारण करना, और प्रकट करना । पुण्य के भी दो भेद है .--१. द्रव्य पुण्य और २. भाव पुण्य ।
अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ-वृत्तियो से पुण्य का उपार्जन' होता है। विश्व, राष्ट्र, समाज, जाति तथा दुखी प्राणियो के दुखनिवारण करने की भावना, तथा तुदनुकूल प्रवृत्ति करने से पुण्य का वन्ध होता है । और इन्ही सगुणो को सम्यक्दृष्टिपूर्वक सम्पादन किया जाय, तो यह धर्म तथा निर्जरा के भी कारण बन जाते है।
पाप---जिस विचार, उच्चार एव आचार से अपना और पर का अहित हो और जिसका फल अनिष्ट-प्राप्ति हो, वह पाप कहलाता है । पाप-कर्म आत्मा को मलीन और दुखमय बनाते है । निम्नलिखित अठारह अशुभ आचरणो मे सभी पापो का समावेश हो जाता है। १ प्राणातिपात-हिंसा। २. मृषावाद-असत्य भापण । ३. अदत्तादान-चौर्यकर्म। ४. मैथुन-काम-विकार, लैगिक प्रवृत्ति। . ५. परिग्रह-ममत्व, मूर्छा, तृष्णा, ६. क्रोध-गुस्सा ।
संचय । ७ मान-अहकार, अभिमान । ८. माया-कपट, छल, षडयन्त्र, कूटनीति । ६. लोभ-सचय के सरक्षण की १०. राग-पासक्ति ।
वृत्ति। ११ द्वेप-घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या १२. क्लेश-सघर्ष, कलह, लडाई, झगड़ा आदि ।
___ आदि ।
१ ‘भगवती, श० ७, उ० ६, सूत्र २८६ ।