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जैन धर्म
वाले, और अनोग्ये सिद्ध हुए। इस प्रवाम के फलस्वरूप मगध का जैन सब दो भागो मे बँट गया। इसका दुष्परिणाम दिगम्बर-श्वेताम्बर के सम्प्रदाय भेद के रूप में प्रकट हुग्रा, मगर दूसरा महत्त्वपूर्ण मुफल यह हया कि उन्होने दक्षिण के (कलन, होयमेल, गग आदि) के राजदगो पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप मे जैनधर्म और अहिगा का जो प्रभाव छोडा, वह पार्यों और द्रविडो की एकता का कारण बना । महान् श्रुनधर आचार्य भद्रबाह पूर्व और उत्तर के मवर मम्मिलन की प्रयम कडी थे।
ग्रार्य महागिरि और आर्य मुहम्नी के गिाय गुणसुन्दर ने सम्राट् सम्प्रति की सहायता से भारत के विभिन्न प्रान्तो के अतिरिक्त अफगानिस्तान, यूनान और ईगन ग्रादि एगिया के समस्त गप्ट्रो में जैन धर्म का व्यापक प्रचार किया।
मूत्रय ग के प्रतिष्ठापक उमास्वाति, भारत के महान् दार्गनिक मिद्धमेन दिवाकर ने जैन तर्कशास्त्र को व्यवस्थित रूप प्रदान किया और प्राचार्य कुन्दकुन्द ने आध्यात्मिक ग्रथो की रचना करके और स्वामी मामन्तभद्र ने तर्कशास्त्र की प्रतिष्ठा करके जैन साहित्य को समृद्ध बनाया।
जब हम विक्रम की पहली महस्राब्दी पर दृष्टि दौडाते है, तो सहसा हो अनेको विनियाँ दिग्वाई देती है, जिन्होने माहित्य के विविध अगो को पुष्ट करने मे मराहनीय प्रयत्न किया है। देवधिगणीक्षमाश्रमण, जिनभद्रगणीक्षमाश्रमण अभयदेव, हरिभद्र, गीलाक, धनेश्वर मूरि, कालिकाचार्य, जिनदास महत्तर आदि और दूसरी सहस्राब्दी के कलिकाल सर्वन हेमचन्द्राचार्य, वादी देव मूरी, यगोविजय आदि वे प्राचार्य है, जिन्होने धार्मिक, राजनीतिक, साहित्यिक तथा आध्यात्मिक विचारो से देग को सम्पन्न बनाया है। दूसरी तरफ प्राचार्य गणधर, भूतवली, पुष्पदन्त,. कुन्दकुन्द, पूज्यवाद, पात्रकेमरी, अकलक, विद्यानन्दी, सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र जिनमेन, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र आदि भी है जिन्होने दक्षिण और उत्तर को अपनी प्रतिभा से प्रभावित किया है।
भारत के निर्माण मे जैनाचार्यों का योगदान यद्यपि मुख्यतया आध्यात्मिक रहा है, तथापि गजरात का साम्राज्य कुमारपाल को अहिंसा की दीक्षा, तथा दक्षिण मे विजय नगर की राज्य-व्यवस्था मे अहिसा की प्रतिष्ठा तथा विहार और मथुरा प्रदेशो मे, अहिमक वातावरण उत्पन्न करने मे भी इन्ही प्राचार्यों का योग रहा है ।
जब तक भारतवर्ष मे हिसा और भूतदया, निरामिप भोजन, दुर्व्यसनो के प्रति वृणा, मद्यपान एवं चारित्रिक निर्बलताग्रो के विरुद्ध जो माहिक भावना दिखाई देती है उसके पीछे जैनाचार्यों का प्रवल हाय रहा है।