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विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणियस्स य । जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छई ।।
--८०, ९,२, २१॥ नच्चा नमई मेहावी, लोए कित्ती से जायइ। हवा किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगइ जहा ॥
--उत्तराध्ययन, अ० १, गा• ४५ । हे साधक | सभ्यता का मूल विनय है, अविनय नही । अत. अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है और सुविनीत को सम्पत्ति ये दो बाते जिसने जान ली है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
हे साधक ! विनय के स्वरूप को जानने वाला सदा नम्र रहता है, और वह इस लोक मे कीर्ति प्राप्त करता है। जिस प्रकार पृथ्वी समस्त वनस्पति और प्राणियो के लिए आधार रूप है, उसी प्रकार विनीत पुरुष भी समस्त गुणो का आधार रूप होता है।
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जैन-शिष्टाचार